निम्बार्क-संप्रदाय में निहित सामाजिक क्रांति के तत्व

Authors

  • (श्रीमती) आरती पाठक सहा.प्रध्यापक,सहित्य एवं भाशा अध्ययनषाला पं.रविषंकर षुक्ल विष्वविद्यालय रायपुर (छग)

Keywords:

निम्बार्काचाय संप्रदायों शरणागति

Abstract

वेदांत के पाँच संप्रदायों में शंकर का वेदांत अद्वैत-परक एवं शिव-परक एक माना जाता है। शेष चारों का संबंध वैष्णव धर्म एवं विष्णु से है। ‘‘शैव तथा वैष्णव धर्मों का आदि-स्रोत वेद है।’’1 विष्णु-भक्ति का प्रारंभ भी वेद से ही माना गया है। ‘‘विष्णु का एक महत्वपूर्ण नाम ‘त्रिविक्रम’ है। इस संज्ञा से संबंधित एक घटना यह है कि त्रिविक्रम ने अपने तीन पाद-विक्षेपों से समग्र विश्व को नापा है।’’2 वैष्णव धर्म की मुख्य विशेषता शरणागति मानी जाती है। आज वैष्णव धर्म की अनेक शाखाएँ विद्यमान हैं। ‘‘इस संप्रदाय में दोनों ही संयुक्त रूप से आराधना की वस्तु है।’’3 प्रो. एम.एम. अग्रवाल, सत्यानंद जोसेफ, प्रो. रसिक बिहारी जोशी आदि विद्वानों ने निम्बार्क को उसी काल का माना है, जिस काल में शंकराचार्य हुए और वे प्रथम आचार्य थे, जो कृष्ण के साथ राधा की आराधना सखी-भाव पद्धति में करते थे। उन्होंने वेदांत कामधेनु दशश्लोकी में यह स्पष्ट कहा है कि- ‘‘अंगे तू वामे वृषभानुजम मुदा विराजमान अनुरुपसौभागम। सखीसहस्रैह परिसेवीताम सदा स्मरेम देवी सकलेष्टकामदाम।।’’4 अर्थात् परमपिता परमेश्वर के शरीर का बायाँ हिस्सा राधा हैं, जो हर्ष के साथ बैठी हुई हैं और स्वयं परमेश्वर जैसी ही सुंदर हैं, जिनकी सेवा में हजारों गोपियाँ हैं। हम उस सर्वोच्च देवी का ध्यान करते हैं, जो सभी इच्छाओं की पूर्ति करने वाली हैं। निम्बार्काचार्य ने भक्ति में आनंद-प्राप्ति का रास्ता राधाकृष्ण-भक्ति के माध्यम को बनाया। 13वीं-14वीं सदी में मथुरा और वृंदावन के विनाश के कारण सही तिथि और इस परंपरा के मूल रहस्य की जानकारी विस्तृत रूप से प्राप्त नहीं होती है।

References

मनुसंहिता, 2-6. 2. डाॅ. एन. चंद्रकांत; तमिल और हिंदी का भक्ति-साहित्य; दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा; मद्रास: प्रथम संस्करण-1971; पृ. 353.

रमेश एन. दवे; के.के. वेंकटचारी; भक्त-भगवान संबंध; ेलंण् गो मुद्गला; बोचासंवासी श्री अक्षर पुरुषोŸाम संस्था; 1988; पृ. 74. 4. कामधेनु दशश्लोकी; छंद 6. 5. आचार्य रामचंद्र शुक्ल; हिंदी साहित्य का इतिहास; कमल प्रकाशन; दिल्ली, संवत् 1997, पृ. 135. 6. कल्याण का भक्तांक; पृ. 135. 7. डाॅ. एन. चंद्रकांत; यथापरि; पृ. 355. 8. हरिदास; दशश्लोकी टीका; पृ. 36. 9. भागवत संप्रदाय से उद्धृत; पृ. 340. 10. डाॅ. एन. चंद्रकांत; यथापरि; पृ. 356. 11. हृदयेश मिश्र एवं शिवलोचन पाण्डेय; हिंदी-साहित्य का इतिहास; भारती भवन प्रकाशन; पटना, संस्करण-1967, पृ. 69. 12. ीजजचरूध्ीपण्ूपापचपकमंण्वतहण् 13. ीजजचरूध्ीपण्इतंरकपेबवअमतलण्वतहण् 14. हृदयेश मिश्र एवं शिवलोचन पाण्डेय; यथोपरि; पृ. 66. 15. श्वेताश्वर; अध्याय-6; श्लोक-15. 16. डाॅ. देवेन्द्र आर्य; हिंदी संतकाव्य में प्रतीक विधान; साहित्य प्रचारक; दिल्ली, संस्करण-1975, पृ. 85. 17. त्रिपुरसुंदर रहस्य; (ज्ञानखंड). 18. यथोपरि. 19. रामस्वार्थ चैधरी ‘अभिनव’; मधुर रस स्वरूप और विकास; राजकमल प्रकाशन, दिल्ली: प्रथम संस्करण-1968, पृ. 32. 20. आचार्य रामचंद्र शुक्ल; यथोपरि; पृ. 53. 21. यथोपरि, पृ. 131.

Downloads

Published

2010-03-31

Issue

Section

Articles