एक अध्ययन - हमारे मौलिक अधिकार कल और आज

Authors

  • Dharmendra Kumar Neeraj Dharmendra Kumar Neeraj Research Scholar, Political Science Department, Delhi University, New Delhi

Abstract

भूमिका
मानवाधिकारों को सामान्यत: ऐसे अधिकारों के रूप में परिभाषित किया जाता है, जिनका उपयोग करने और जिनकी रक्षा की अपेक्षा रखने का हक प्रत्येक मनुष्य को है। अतीत में सभी समाजों और संस्Ñतियों ने कुछ ऐसे अधिकारों और सिधांतों की अवधारणा का विकास किया है, जिनका आदर करना आवश्यक समझा गया है और जिनमें से कुछ को सार्वजनिक माना गया है। भारतीय संस्Ñति और सभ्यता में एक गहरी मानवातावादी और सहिष्णुता की परंपरा रही है। भारतीय दर्शन परंपरा ने सार्वजनिक बंधुत्व एवं तमाम विश्व को एक परिवार के रूप में वासुदेव कुटुबंकम में देखने की अवधारणाओं को स्पष्ट किया। लेकिन समय के साथ-साथ मानव स्वभाव एवं सामाजिक परिसिथतियों में बदलाव आया है। अब लोगों में सदभावना व सहिष्णुता समाप्त होती जा रही है और समाज में विषमतायें एवं शोषण की घटनायें बढ़ रही है। संयुक्त परिवार बिखरने लगे हैं घरेलू हिंसा, यौन शोषण, शारीरिक उत्पीड़न व मानसिक प्रताड़ना बढ़ने लगी है। वर्तमान परिसिथतियों में समाज के कुछ वगो± व समूहों को मूलभूत अधिकार भी प्राप्त नहीं है। परन्तु सबको समान अधिकारों की प्रापित के लिए कर्इ संस्थायें व व्यकित अनवरत कार्य कर रहे हैं। सरकार द्वारा भी समाज के शोषित व उपेक्षित लोगों के उत्पादन के लिए कर्इ कानून एवं कार्यक्रम बनाये गये हैं।
संयुक्त राष्ट्र अधिकार पत्र की स्वीÑति के बाद के 50 वषो± के दौरान मानवाधिकारों पर अमल का इतिहास निराशाजनक रहा है। कुछ प्रेक्षकों ने तो उसे 'भयावह भी कहा है। मावाधिकारों के पूर्ण कार्यान्वयन के लिए उनका ज्ञान और उनके संबंध में सरोकार पैदा करने की आवश्यकता है। यह कहने में कोर्इ आपत्ति नहीं होगी कि इसे हमारे असितत्व की अनिवार्य शर्त माना जा सकता है। मानवाधिकारों की शिक्षा की आवश्यकता पर सभी मानवाधिकार दस्तावेजों में जोर दिया गया है और ऐसी शिक्षा को ''भूमंडलीय मानवाधिकार संस्Ñति के विकास में आवश्यक योगदान माना गया है।

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Published

2013-12-31