पुरूष एवं अन्तःकरण ;वाचस्पति मिश्र का विवेचनात्मक अध्ययनद्ध
Keywords:
योगदर्शन, सांख्य सूत्र, सांख्य कारिका, तत्तववेश्षारदी ।Abstract
सांख्य के अनुसार पुरुष शरीर, बुद्धि, इन्द्रिय प्रकृति के भिन्न स्वतंत्र तत्व हैं। यह पुरुष अजर, नित्य हैं तथा विकार रहित हैं इसकी किसी भी कारण से नहीं है। सांख्य दर्शन पुरुष अथवा आत्मा के स्वरूप को अतिसूक्ष्म तथा विशद विवेचन को प्रस्तुत करता है।
वाचस्पति मिश्र अव्यक्त, इन्द्रिय,महत्तत्त्व, अहंकार सांघातात्मक पदार्थ है और कहते हैं की अव्यक्त के अतिरिक्त पुरुष की सत्ता है। ये सभी पदार्थ सुख दुःख मोहात्मक होने के कारण संघात है। आचार्य ने पुरुष को ‘‘त्रिगुणादिविपर्यय’’ कहते हैं। और पुरुष को असंघातात्मक या असंहत के रूप में माना है, और उसी को आत्मा या पुरुष कहा है। इसलिये भी पुरुष की सत्ता मानी है कि कोई अधिष्ठान या नियंत्रण करने वाला आपेक्षित है। त्रिगुणात्मक पदार्थों के अधिष्ठीयमान या नियम्यमान होने के कारण उनका कोई अधिष्ठाता यानियामक होगा या होना चाहिए। आचार्य मिश्र ने पुरुष को भोक्ता के रूप में भी माना है। माना गया है कि हमारे चित्त, बुद्धि कार्य करते हैं परन्तु ऐसा नहीं है चित्त, बुद्धि (अंतःकरण या अहंकार) इनके माध्यम से या इनके सम्पर्क से पुरुष करता है। इससे पुरुष की सत्ता मानते हैं।
महर्षि पतंजलिकृत योगदर्शन में योग की परिभाषा योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः बतलाई गयी है। चित्त की वृत्ति अंहकार ही है। ‘अस्मिता’ क्लेश हो तो अहंकार है छक् शक्ति ‘आत्मा’ और दर्शन शक्ति ‘बुद्धि’ को एक मान लिया जाय तब ‘अस्मिता’ नाम का क्लेश होता हैं । चित्त की वृत्ति को अभ्यास-वैराग्य द्वारा नियन्त्रण में करके हम अंहकार को नियन्त्रण में ला सकते है जिससे पुरूष आत्मसाक्षात्कार कर कैवल्य की प्रप्ति करता है अतः एैसे पुरूष के लिए ही समग्र स्वास्थय की कल्पना की गयी है ।
References
ये तु तैष्टिका अव्यक्तं वा महात्तं वाडऽकरं व इन्द्रियाणि वा भूतानि
वाडत्मानमभिमन्यमानास्तान्येवोपासते, तान् प्रत्याह संघात परार्थत्वादिति।
‘संघातपरार्थत्वात्’ इति। पुरुषोऽस्ति, अव्यक्तदेव्यर्यतिरिक्तः कुता? संघात परार्थत्वात्।
अव्यक्तमहृदहांकारादयः परार्थाः संघातत्वात् शयनासनभ्यगांदिवत्। सुखदु
खमोघत्मकतयाऽसक्ता सर्वे संघातकात्।
इतश्च परूषोऽस्ति पुरुषभेद इत्याह ‘‘अयुगपत्यवृतेश्य’’ इति। प्रवृत्ति प्रयत्नलक्षणा
यधप्यत्तकरणवर्तिनी तथापि पुरुषे उपचर्यते। तथा च तस्मिन्नेकत्र शरीरे प्रयतमाने,
स एवं सर्वशरीरेश्षु एक इति सर्वत्र प्रयतेत ततश्च सर्वाण्येव शरीराणि युगपत्चालयेत्।
नानात्वेतु नायं दोष इति।
जननेमरणकरणानां प्रतिनियमादयुगपत्प्रवृत्रश्च।
पुरुषबहुत्व सिद्धं त्रेगुण्यविपपर्ययाच्चैव।।18।।
अतश्च प्रतिक्षेत्र पुरुषभेद इत्याह ‘‘अयुगपत्यप्रवृत्तेश्च’’ इति। नप्रवृत्ति प्रयत्नलक्षणां
पध्यल्नतःकरणर्तिनी, तथापि पुरुषें उपचर्य ते। तथा च तसिमन्नेकत्र शरीरे प्रयतमाने,
स एव शरीरेषु एक इति।
तस्मातत्संगयोगदचेतनं चेतनावदित लिंगम्ं
गुणकत्तेृत्वे च तथा कत्र्ते व भवत्युदासीन।।20।।
तस्मांच, विपर्यासात्सिद्धं साक्षित्वमस्य पुरुषस्य।
कैवल्यम्माध्यस्थ्यं द्रष्हत्वकर्तृभावश्च।। (सा0 का0 19)
‘हेतुमदर्निमत्यापी सक्रियमनेकमश्रितं लिंगम्।
सावयवं परतंत्र त्यक्तं विपरीतभव्यक्तम्।।
व्यक्तं तथा प्रधानं तद्विपरीस्तथा च प्रभात्।। (सां0 का0 10,11,19)
‘नित्यशुद्धबुद्मुक्तस्वभावस्य तधोगस्तधोगाद्वते’ (सां0सू0 1/19)
‘यथा हि केवलो रक्तः स्फटिको लक्ष्यते जनैः।
एज्जंधुपधनेन तद्वत् परमपुरुष।। (सौ0 11/31)
‘तस्मात्त्संयोगादचेतनं चेतनावदिव लिंगम्।
गुणकर्तृत्वे च तथा कर्तेव भवत्युदासीनः।। (सां0 का0 20)
‘अहंकारः कर्ता न पुरुषः’ (सां0 का0 6/45)
‘निःसंगहयऽप्युपरागोडविवेकात्’ (सां0 सू0 6/27)
‘अकर्तुरपि फलोपभोगोहन्नरधवत्’ (सां0 सू0 1/105)
‘अविवेकाद्वा तत्सिद्धेः कर्तु फलावगमः’ (सां0 सू0 1/106)
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