भारत की परमार मूर्तिकला
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.Abstract
प्राचीन मालवा (वर्तमान उज्जैन) में लगभग 948 ई. में परमार शासकों का आधिपत्य हुआ जिन्होंने 1300 ई0 तक मालवा और मध्यप्रदेष तथा राजस्थान के विभिन्न क्षेत्रों पर शासन किया। परमारों का काल मालवा का स्वर्णकाल रहा है। जबकि कला अपने चरमोत्कर्ष पर थी। परमार राजवंष के सबसे प्रतापी शासक मुन्ज और भौज परमार (1011-55 ई.) थे। भोज स्वयं एक विद्वान और कला प्रेमी शासक था जिसने समरांगण सूत्रधार की रचना की जो मध्ययुगीन षिल्प और स्थापत्य का एक महत्वपूर्ण संदर्भ ग्रंथ है। परमारों के पूर्व इस क्षेत्र में गुर्जर-प्रतिहारों का शासन था किंतु परमारों के काल से स्वतंत्र मालवा शैली का विकास हुआ। मालवा में ही लगभग 11 वीं शताब्दी ई. में स्थापत्य की एक विषिष्ट शैली भूमिज का भी विकास हुआ। भोज ने धारा में एक विष्वविद्यालय की स्थापना करायी और सरस्वती को उसकी अधिष्ठात्री देवी के रूप में
प्रतिष्ठित किया। भोज द्वारा संवत् 1091 (1034 ई0) में स्थापित सरस्वती की यह विषिष्ट प्रतिमा सम्प्रति ब्रिटिष संग्रहालय, लन्दन में सुरक्षित है जिसमें शैली की दृष्टि से प्रतिाहर षिल्प का परवर्ती विकसित रूप दिखाई देता है। पल्लव शासक महेन्द्रवर्मन् के समान परमार शासक भोज भी साहित्य और कला का महान ज्ञाता और प्रेमी था। उदयपुर के समीप नीलकण्ठ या उदयेष्वर मंदिर का निर्माण परमारों के अधीनस्थ उदयादित्य नाम के शासक ने 11वीं शती ई. के मध्य में कराया था।
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