सामाजिक संस्कार और स्त्री-जीवन

Authors

  • अनीता देवी सहासक प्रध्यापक ,एस,एस,एन काॅलेज दिल्ली

Keywords:

समाज, सांस्कृतिक, दैनिक

Abstract

किसी भी समाज का निर्माण करने में स्त्री -पुरुष दोनों की बराबर की भागीदारी है। इन दोनों के बिना हम समाज की कल्पना नहीं कर सकते। स्त्री - पुरुष दोनों एक-दूसरे के पूरक भी हैं और एक - दूसरे से भिन्न एवं स्वायत्त भी। इस सच्चाई से कोई इन्कार नहीं कर सकता। समाज में दोनों का बराबर महत्व है। गृहस्थी की गाड़ी को चलाने के लिए दोनों की ही महत्वपूर्ण भूमिका है। लेकिन हमारे समाज के पितृसत्तात्मक ढांचे ने स्त्री की अस्मिता को खत्म कर उसे हाशिए पर धकेल दिया। अपनी पहचान को तलाशती नारी सिर्फ शरीर भर रह गई । वह मनुष्य या प्राणी ने रहकर उपभोग की वस्तु बन गई। लेकिन इस समाज में कोई व्यक्ति स्त्री है या पुरुष यह तो प्रकृति प्रदत्त चीज है । फिर क्यों उसकी लिंग के रुप में पहचान को सांस्कृतिक कारकों के माध्यम से निर्मित किया गया है ? पुरुष ही क्यों उसकी अस्मिता को तय करता है, वह स्वयं क्यों नहीं ? पितृसत्ता द्वारा क्यों उसे समाज में पत्नी, मां, बहन, बेटी या रखैल का दर्जा देकर उसे दोयम दर्जे का नागरिक बना दिया जाता है ? क्या इसलिए कि ये सभी दर्जे स्त्री की स्थिति को कमजोर और पुरुष प्रभुत्व को मज़बूर करते हैं तथा स्त्री के शोषण को बढ़ावा देते हैं ? स्त्री को कहां जाना है कहां नहीं, ये सीमाएं भी परिवार के पृरुष ही तय करते हेैं। किसी पर-पुरुष से बात करनी है या नहीं और अगर करनी है तो शालीनता के मापदंड पुरुष द्वारा तय किए जाते हैं। किस क्षेत्र में कैरियर बनाता है किसमें नहीं इसका निर्णय भी वह नहीं ले सकती । क्यों ? क्या उसकी अपनी इच्छाओं का कोई महत्व नहीं होता ? क्या उसे अपने मन मुताबिक जीने का या अपने जीवन संबंधी निर्णय लेने का अधिकार नहीं ? क्यों स्त्री इन पितृसत्तात्मक मूल्यों और अवैज्ञानिक परंपराओं, मर्यादाओं का पालन करती हुई अपना जीवन पिता, पति और भाई और अन्य की सेवा करने में खपा देती है ? उसकी दैनिक दिनचर्या में बहुत कम क्षण होते हैं जो सिर्फ उसके अपने होते हैं। जी हां, आज इक्सिवीं सदी में जब बार-बार स्त्रियों की आजादी की दुहाई दी जाती है, नारी सशक्तिकरण की बात की जाती है। कहा जाता है कि स्त्री आज स्वतंत्र है। माना जा रहा है कि सदियों से वह जिस पुरातन परंपराओं रुपी कोठरी में बंद थी उसकी खिड़कियां खुल गई हैं। वे ताजी हवा में सांस ले रही हैं। लेकिन जब हम इन खुली खिड़कियों में झांककर भीतर देखते हैं तो नारी ऐसे ही जाने कितने प्रश्नों से जूझती नजर आती है।

References

संदर्भ ग्रंथ -

आज का स्त्री आंदोलन, रमेश उपाध्याय, सन्ध्या उपाध्याय

कस्तूरी कुंडल बसेै, मैत्रेयी पुष्पा

खुली खिड़कियां, मैत्रेयी पुष्पा

दिलों दानिश, कृष्णा सोबती

मित्रों मरजानी, कृष्णा सोबती

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Published

2014-04-30

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Section

Articles