सृष्टि रचना में अन्तःकरण का महत्व

Authors

  • डा0 रजनी नौटियाल योग विभाग हे0नं0ब0गढ़वाल विश्वविद्यालय, श्रीनगर गढ़वाल

Keywords:

Abstract

त्रिगुणात्मिका प्रकृति रजस गुण के प्रभाव से सदैव परिणाम को प्राप्त करती है, किन्तु प्रलयकालीन दशा में सत्त्व से, रजस् का रजस् से, तमस् का तमस् से परिणाम होता है। यही प्रकृति कासंरूप परिणाम है। पुरुष के साथ संयोग होते ही उसके इन्हीं गुणों में संक्षोभ उत्पन्न होता है और इस वैषभ्य की स्थिति उद्भूत हो जाने से वही प्रकृति विरूप परिणाम को प्राप्त करती हैं यही उसका सृष्टि कालीन द्वितीय परिणाम है। इस प्रकार एक ही प्रकृति से समस्त सृष्टि की अभिव्यक्ति होती है। उससे व्यक्त होने वाले मुख्य 23 तत्व हैं। प्रकृति से समुद्भूत होने वाला सर्व प्रथम तत्त्व महत् अथवा ‘बुद्धि’ है। महत्तत्त्व से ‘अहंकार’ एवं तामस अहंकार से शब्द स्पर्श रूपर सगन्ध संज्ञक पंच तन्मात्राओं अथवा सूक्ष्म महाभूतों तथा सात्त्विक अहंकार से मन सहित एकादश इन्द्रियों की उत्पत्ति होती है।इस प्रकार पुरुष के संयोग से एक ही प्रकृति से सम्पूर्ण सृष्टि का विकास होता है। इनमें सभी कार्यों का मूल केवल प्रकृति है।महत्तत्त्व-अहंकार-मन-पंचज्ञानेन्द्रिय-पंचकर्मेन्द्रिय इन्हीं को त्रयोदशकरण करते हैं। इनमें प्रथम तीन मुख्य करण, अन्तःकरण तथा शेष 10 बाहयकरण है।इस प्रकार किसी एक पुरुष के अन्तःकरण में विवेक ज्ञान के उत्पन्न हो जाने से (प्रकृति) अपने सृष्टिकार्य से यदि निवृत्त हो जाती है, तो सभी लोगों की मुक्ति होने का प्रसंग प्राप्त होगा।
मुण्डकोपनिषद में भी सृष्टि रचना का प्रतिपादन उपादान कारण की दृष्टि से करके निमित्त कारण की दृष्टि से किया गया है। कठोपनिषद् में भी कार्य से कारण की ओर संकेत करते हुए कहा है कि इन्द्रियों में मन सूक्ष्म है, मन से सूक्ष्म बुद्धि है, बुद्धि से सूक्ष्म ऊपर महत्तत्व है और महत्तत्व से सूक्ष्म अव्यक्त प्रकृति सूक्ष्म है।18जिस प्रकार रस्सी तनी लड़ियों से बनी है, उसके समान यह सृष्टि रचना भी इन तीन लड़ी अर्थात सत्व, रज, तम से मिलकर हुई है। वहां उपनिषद में ये तीन अर्थात त्रिवृत्त हैं।

References

‘अकुतुर्रपि फलोपभोगोड’, अविवेकाट्वा तत्सिद्धे कर्तुः फलावगमः’ (सा0 सू01/105-06)

‘पुरुषस्य दर्शनार्थं कैवल्यार्थं तथा प्रधानस्य।, षड्ग्वन्धवदुभयोरपि संयोगत्स्तत्कतःसर्गः ।। (सा0 का0 21)

मूलप्रकृतिरविकृतिर्महदाधाः प्रकृतिविकृतयः सप्त।

षोऽशकस्तु विकारो न प्रकृर्तिन विकृतिः पुरुष।।,

प्रकृतेमहांस्ततोऽहकांरस्तस्माद् गराÜच षोडशकः।

तस्मादपि षोडशकात् पंचभ्या पंच भूतानि।। (सा0 का0 3 एवं 22)।

सवंप्रत्युभोगं यस्मात्पुरुषस्य साधयति बुद्धिः।

सैव च विशिनष्टिः, पुनः प्रधानपुरुषान्तरं सूक्ष्मम्।। (सा0 का0 37)।

दैवादिः प्रभेदोऽवान्तरभेदों यस्याः सा तथा सृष्टिरिति शेषः।

तदेतत् कारिका व्याख्यातम्। 46।

अष्टविकल्पो दैवस्तैर्यग्योनश्च पंचधा भवति।

मनुष्य र्श्रेचकविधः समासतो भौतिकः सर्ग।। (सा0 का0 - 53)

अवान्तरसृष्टेरप्युक्तायाः पुरुषार्थत्वमाह।

आब्रह्नस्तम्बपर्यन्तं तत्कृते सृष्टिराविवेकात्।।47।।

चतुर्मुखमारभ्य स्थावरान्ता व्यष्टिसृष्टिर्रोय विराट्सृष्टिवदेव पुरुषार्था भवति।तत्तत्पुरूषाणां विवेकख्यातिपर्यन्तमित्यर्थः ।।47।।

‘तदाः दुष्टुः स्वरूपेवस्थाऽनम्’

कलादेः कर्मवाद्वक्ष्स्वतः प्रधानस्य चेष्टितं सिद्धयति, दृष्टत्वात्। अथैको गच्छति,ऋतुरितरÜच प्रवर्तत इत्यादिरूपं कालादिकर्म स्वत एवं भवत्येवं प्रधानस्यापि चेष्टा स्यात्।

कल्पनाया दृष्टानुसारित्वादित्यर्थंः।।60।।

वाशब्दोऽत्र समुच्चये। यतः कर्मानाधतः कर्माभिराकर्षणादीप। प्रधानस्यावयकी व्यवस्थिता च प्रवृत्तिरित्यर्थः।।62।।

विवित्त्पुरूषज्ञानात् परवैराग्येण पुरूषार्थसमाप्तौ प्रधानस्य सृष्टिर्निवर्तते। यथा पाके निष्पन्ने पाचकस्य व्यापारो निवर्तते इत्यर्थः। इयमेवोत्यन्तिकप्रलय इत्युच्यते। तथा च श्रुतिः- तस्यभिध्यानाधोजनात् तत्वभावाद् भुयाश्रचन्ते विश्वमामयनिवृत्ति रिति।(श्रवे उ0 1/10 ।। 63।।) 13. नन्वेवमेकपुरूषस्योंपाधौ विवेकज्ञानोत्पत्त्या प्रकृतेः सृष्टिनिवृत्तौ सर्वमुक्तिप्रसंग इति,तत्राह

इमानिचपंचमहाभूतानि पृथ्वि (तै0 उ0 ख0 5 अनुवाक)

मुण्डक0 उपनिषद्। मु0 ( ख0 मं0 8)

पृथ्वी च पृथ्वीमात्र, चापश्चापोमात्रातेजश्च तेजोमात्रअकाश-मात्र (प्रश्नो0 चतु0 प्र08 म0)

घ्राणरग्वस्या-तस्यगन्धाः, चक्षुरेवास्या-तस्य रूपं-श्रोत्रमेवा स्यातस्य शब्द- (शा0 भ05/5।)

यदग्नेरोहितं रूतं त्रेजसस्तदरूपं यच्छुकलंतदपं यत्कृष्ण तदन्नस्यापागादग्नेराग्त्विं वाचारम्भण विकारोनाग्नधेयं त्रीणिरूपाणि इत्येव सत्यम। छान्दोग्य (6/47/4)

Downloads

Published

2016-09-30