अनुवाद साहित्य की उपयोगिता
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Abstract
भाषा के आविष्कार के बाद जब मनुष्य समाज का विकास-विस्तार होता चला गया और संपर्कों एवं आदान-प्रदान की प्रक्रिया को अधिक फैलाने की आवश्यकता अनुभव की जाने लगी तो अनुवाद साहित्य ने जन्म लिया। प्रारंभ में अनुवाद की परंपरा निश्चित रूप से मौखिक ही रही होगी। इतिहास भी इस बात का साक्षी है, कि प्राचीनकाल में जब एक राजा दूसरे राजा पर आक्रमण करने को निकलता था, तब अपने साथ ऐसे लोगों को साथ लेकर चलता था, जो दुभाषिए का काम करते थे। यही अनुवाद साहित्य का आदिम रूप था। अनुवाद मानव सभ्यता के साथ ही विकसित एक ऐसी तकनीक है, जिसका आविष्कार मनुष्य ने बहुभाषिक स्थिति की बिडम्बनाओं से बचने के लिए किया था।
आत्माभिव्यक्ति के अनेक साधनों-प्रकारों में से एक मुख्य साधन है भाषा व्यवहार। भाषा व्यवहार की सामाजिक उपादेया के संबंध में अलग से कुछ कहने की आवश्यकता नहीं परंतु भाषा व्यवहार के मुख्य प्रकारों को स्थूल ज्ञान आवश्यक है। बोलना, सुनना, पढ़ना और लिखना। ये चार भाषिक कौशल भाषा व्यवहार के लिए आवश्यक होते हैं। इनमें से प्रथम दो का प्रधान कौशल और दूसरे दो को गौण कौशल माना जाता है। प्रथम दो को प्रधान कौशल इसलिए माना जाता रहा है कि वे अभिव्यक्ति के प्रत्यक्ष संपर्क साधन हैं। अन्य स्थितियों में पढ़ना-लिखना को अपनाया जाता है इसलिए उन्हें गौण साधन कहा जाता है। जब हम बोलते हैं और लिखते हैं तब हम अपने अमूर्त भावों-विचारों को एक तरीके से अनूदित ही करते हैं।
भारतीय साहित्य की मूलभूत अवधारणा भारत में प्राचीन काल से विकसित और पल्लवित विभिन्न भाषाओं के सामूहिक स्वरूप से उत्पन्न हुई है। भारत उपमहाद्वीप शताब्दियों से गौरवशाली समन्नत सभ्यता और संस्कृति का केन्द्र रहा है। विश्व मनीषा सदैव भारतीय चिंतन परंपराओं, साहित्य बोध तथा दार्शनिक पद्धतियों के प्रति विस्मयपूर्ण आदर का भाव प्रदर्शित करती रही है। ‘‘भारतीय साहित्य की आधारभूत भारतीयता या एकता से परिचित होना तभी संभव होता है। जब हम उसे अनेकता या भारतीय साहित्य की विविधता के संदर्भ में अनेकता या समझने का प्रयत्न करते हैं। पश्चिमी विचारधारा प्रत्येक समस्या को द्वि-आधारी प्रतिमुखता मंे बदल देती है, और इसके विपरीत भारतीय मन की साकल्यवादी दृष्टि में विश्वास करता है, और परिणामतः एकता-अनेकता जैसे विरूद्धों के समूह को एक दूसरे के संपूरक के रूप में स्वीकार करना सहज हो जाता है और स्थानीय, प्रांतीय तथा सर्व भारतीयता तथा राष्ट्रीय अस्मिता में एक सजीव संबंध स्थापित करना आसान हो जाता है। भारतीय साहित्य अपनी एकता में विविधता को अंगीकार करते हुए प्रदर्शित करता है, और यही विश्व को भारत की देन है। अनेकता से एकता की ओर ले जाने वाला यह माॅडल भारत की अनन्यता है।’’1
भारतीय चिंतन परंपरा में प्राचीनकाल से ही एक वैश्विक दृष्टि समाहित रही है। जिसके अंतर में समूची मानव-जाति के कल्याण की चेतना मौजूद रही है। इस कारण भारत भूमि सदा से ही हर प्रकार के वैविध्य को आत्मसात् करने में न केवल उदार रही है बल्कि हर उस नवीनता को स्वीकार कर उसके सर्वांगीण संवर्धन में सकारात्मक भूमिका निभाई है। भारत की यह समवेती और समावेशी प्रवृत्ति ही इसे अन्य सभ्यताओं और संस्कृतियों से भिन्न और विशिष्ट बनाती है। यह इस भूमि की ही महिमा है कि यहाँ युगों-युगों से असंख्य जातियाँ, अपनी धार्मिक आस्थाओं, सांस्कृतिक विशिष्टतााओं, सामाजिक रूढ़ियों और राजनीतिक प्रतिबद्धताओं को साथ लिए सुरक्षित रहते हुए विकास के मार्ग प्रशस्त करती रही। संसार में ऐसी मिसाल कहीं नहीं मिलेगी जहाँ इतनी जातियाँ, भाषाएँ, सांस्कृतिक और धार्मिक आस्थाएँ एक साथ पुष्पित और पल्लवित हो रही हंै। अनुवाद विज्ञानी डाॅ. जी. गोपी नाथन का मानना है कि ‘‘भारत जैसे बहुभाषा-भाषीदेश में अनुवाद की उपादेयता स्वयं सिद्ध है। भारत के विभिन्न प्रदेशों के साहित्य में निहित मूलभूत एकता के स्वरूप को निखारने के लिए अनुवाद ही एकमात्र अचूक साधन है। इस तरह भौगोलिक और भाषायी दीवारों को ढहाकर विश्वमैत्री को और भी दृढ़ बना सकते हैं।’’2
अनुवाद प्रक्रिया के प्राण तत्व अर्थ होते हैं, अनुवाद की समूची प्रक्रिया अनद्य एवं अनूदित पाठ के अर्थ सामीप्य को सार्थक बनाने की है। इसलिए अनूद्य पाठ के अर्थ की तुलना में अनूदित पाठ के अर्थ से की जाती है, अनूदित पाठ में मूल पाठ के ही अर्थ ध्वनित होना चाहिए। साहित्यिक अनुवाद की समस्याएँ साहित्येत्तर अनुवाद की समस्याओं से अनेक अर्थों में भिन्न होती है। भारतीय साहित्य में अनुवाद का अर्थ भारत की विभिन्न भाषाओं में रचित साहित्य की सभी विद्याओं के पाठ का अनुवाद है। ‘‘पण्डित जवाहरलाल नेहरू कहते थे- यह एक नेशन स्टेट नहीं है मगर एक राष्ट्र निर्मित की स्थिति में है। रवीन्द्रनाथ कहते थे कि हमारा राष्ट्र मात्र भौगोलिक सत्ता नहीं, मृण्मय नहीं। वह एक विचार का प्रतीक है, वह चिन्मय है। हमारा राष्ट्रवाद हमारे प्राचीन आदर्शों तथा गांधी जी द्वारा प्रस्तुत बहुलवाद, आध्यात्मिक परंपरा, सत्य और सहिष्णुता के विचारों तथा नेहरू के समाजवादी तथा अपक्ष ग्रहण (छवद.ंसपहदमउमदज) के विचारों पर आधारित है, और सबसे बड़ी बात हमारे साहित्य की अवधारणा जनता तथा साहित्य के संपर्क की पहचान पर आधारित है। वस्तुतः भारत के साहित्य को केवल भाषा, भौगोलिक क्षेत्र और राजनीतिक एकता से ही पहचाना नही जाता मगर कहीं अधिक उस देश की जनता के आश्रय से पहचाना जाता है।’’3
अनुवाद साहित्य ही दो संस्कृतियों, राज्यों, देशों एवं विचार धाराओं के बीच सेतु बंध का काम करता है और यह अनुवाद ही है जो भौगोलिक सीमाओं को लांधकर भाषाओं के बीच सौहार्द्र सौमनस्य एवं सद्भाव को स्थापित करता है, तथा हमें एकात्मकता एवं वैश्वीकरण की भावनाओं से ओत-प्रोत करता है। बच्चन जी अनुवाद को दो भाषाओं के बीच मैत्री का पुल मानते हैं। उनके अनुसार ‘‘अनुवाद एक भाषा का दूसरी भाषा की ओर बढ़ाया गया मैत्री का हाथ है, वह जितनी बार और जितनी दिशाआंे में बढ़ाया जा सके, बढ़ाया जाना चाहिए।’’4 साहित्य में अनुवाद को महत्व बहुत बाद में मिला। दरअसल अनुवाद के श्लाका पुरूष वे यात्री रहे हैं जिन्होंने देशाटन के निमित्त विभिन्न देशों की यात्राएँ की और जहाँ-जहाँ वे गए। वहाँ-वहाँ की भाषाएं सीखकर उन्होंने वहाँ के श्रेष्ठ ग्रंथांे का अपनी-अपनी भाषाओं में अनुवाद किया।
प्राचीनकाल से लेकर अब तक अनुवाद ने कई मंजिले तय की हैं। यह सच है कि आधुनिक काल में अनुवाद को जो गति मिली है, वह अभूतपूर्व है। मगर यह भी उतना ही सत्य है कि अनुवाद की आवश्यकता हर युग में हर काल में तथा हर स्थान पर अनुभव की जाती रही है। विश्व में द्रुतगति से हो रहे विज्ञान और तकनीकी तथा साहित्य, धर्म-दर्शन, अर्थ-शास्त्र आदि ज्ञान-विज्ञानों में विकास ने अनुवाद की आवश्यकता को बहुत अधिक बढ़ावा दिया है। वर्तमान में अनुवाद साहित्य ने निरंतर प्रगति करते हुए अपना एक उच्च मुकाम बना लिया हैं, और अपनी महत्ता को स्थापित कर लिया है।
References
इंद्रनाथ चैधरी - तुलनात्मक साहित्य - भारतीय परिपे्रक्ष्य, पृ. सं. 99
डाॅ. जी. गोपी नाथन - अनुवाद विज्ञान
इंद्रनाथ चैधरी - तुलनात्मक साहित्य - भारतीय परिपे्रक्ष्य, पृ. सं. 104
डाॅ. आर.एस. - साहित्यानुवाद - संवाद और संवेदना, पृ. 85
प्रो. एम.के. वेंकटरमन - अनुवाद साहित्य की उपयोगिता
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