इक्कीसवीं सदी में उच्च षिक्षा
Keywords:
Abstract
भारत में वर्तमान षिक्षा व्यवस्था अनेक समस्याओं से ग्रस्त है। छात्रों में अनुषासन हीनता ,अध्यापकों में अपने उत्तरदायित्वों के प्रति गैर गम्भीरता आगे चलकर बेरोजगारी और ऐसी ही अनेक समस्याओं से ग्रस्त हैं। आज अध्यापक विषुद्ध व्यवसायिक दृृश्टि से छात्रों को पढाते हैं। इनका अध्यापन एक जीविकोपार्जन का साधन मात्र हो गया है। वर्तमान षिक्षा प्रणाली दूशित हो चुकी है। जो षिक्षा कभी ’’साविद्या या विमुक्तये’’हुआ करती थी वह वर्तमान दौर में ’’सा विद्या या नियुक्तये’’बनकर रह गई है। वर्तमान षिक्षा प्रणाली नौकर बनाती है, मनुश्य नही। वर्तमान षिक्षा प्रणाली हमें अंग्रेजों से विरासत में मिली है जिसका उद््देष्य राज-काज चलाने के लिए सस्ते मूल्य पर देषी क्लर्क और बाबूमिल जाएं था। भारतीय जनमानस में राजभक्ति (अंग्रेजी भक्ति) के बीज बोना भी एक उद््देष्य था। अखिल भारतीय इतिहास संकलन योजना ,नई दिल्ली के राश्ट्रीय संगठन मंत्री डाॅ. बालमुकुंद पाण्डे रानी दुर्गावती विष्वविद्यालय जबलपुर में 17.11.2016 को आयोजित राश्ट्रीय संगोश्टि-’’सांस्कृृतिक धरोहरों का महत्व एवं परिरक्षण‘‘ में अपने विचार व्यक्त करते हुए कहते हैं कि -’’षिक्षा को हमने कर्मकाण्ड बना दिया है। दुनिया में भारत एक मात्र ऐसा देष है जहां इतिहास को तीन खण्डों में पढाया जाता है। जो प्राचीन इतिहास जानता है वह आधुनिक इतिहास नहीं जानता और जो आधुनिक इतिहास जानता है वह प्राचीन इतिहास नहीं जानता है। समझ में नहीं आता कि यह हो क्या रहा है ? हम अपने षब्दों की डेफीनेषन आॅक्सफोर्ड से पूछते हैं। हम संस्कृृति को अंग्रेजी में ट्रांसलेटकरके हिन्दी में पढते हैं। हमारे विद्ववानों को हैरिटेज /इतिहास को देखने की दृृश्टि बदलनी होगी। हमने ताजमहल को प्रेम की निषानी तो बताया किंतु राधा-कृृश्ण ,सीता-राम, बहिन-भाई, पिता-पुत्री के पवित्र प्रेम के बंधन को क्लास तक नहीं पहुंचने दिया, हमें उसमें धार्मिकता की बू आने लगी । हमने अपने ही इतिहास(गौरव षाली अतीत) को हीनता और आत्मग्लानी की दृृश्टि से देखा। हम तो विगत 68 वर्शें से पष्चिम के आइने से स्वयं को देखते चले आ रहे हैं। भारत की हैरिटेज दुनिया से अधिक स्मार्ट हैं। उन्हे हैरत है मेरे घर में ,टंगी पगडी पुरानी है। मुझे हसरत है कि मेरे, बाप-दादों की निषानी है।।’’
आज का युवा वर्ग ऐसे दूशित माहौल में जन्म लेता है और हांेस सम्हालते ही इस प्रकार की दुखद एवं चिंताजनक परिस्थितियों से रूबरू होता है। आदर्षहीन समाज से उसे उपयुक्त मार्गदर्षन ही नहीं मिलता और दिषाहीन षिक्षा पद्धति उसे और अधिक भ्रमित करती हैं। ऐसे दिग्भ्रमित और वैचारिक षून्यता से ग्रस्त युवाओं पर पाष्चात्य अपसंस्कृृति का आक्रमण कितनी सरलता से होता है, इसे हम प्रत्यक्ष देख रहे हैं। भोगवादी आधुनिकता के भटकाव में फंसी युवा पीढीदुश्प्रवृृत्तियों के दलदल में धंसती जा रही हैं। विष्वविद्यालय और षिक्षण संस्थान जो युवाओं की निर्माण स्थली हुआ करते थे आज अराजकता एवं उच्छंखलता के केन्द्र बन गये हैं। वहां मूल्यों एवं आदर्षों के प्रति कहीं कोई निश्ठा दिखाई नहीं देती है। सर्वत्र नकारात्मक एवं विध्वंषक गतिविधियां ही होती रहती हैं। इसी का परिणाम है कि हमारा राश्ट्रीय एवं सामाजिक भविश्य अंधकारमय लग रहा है। जैसा बीज होगा , वैसी पौध होगी ,उसी के अनुरूप तो वृृक्ष विकसित होगा, पुश्पित होगा, पल्लवित, और फलित होगा। वर्तमान समय में राजनीतिज्ञों के दुश्चक्र ने तो युवाओं को और अधिक उलझा दिया है। षिक्षा केन्द्र तो पूरी तरह से राजनैतिक द्वन्द्व का अखाडा बन गये हैं। इस युद्ध में युवा वर्ग का प्रयोग कच्चे माल के रूप में खुलेआम होता है। उनकी ऊर्जा और प्रतिभा किसी सार्थक कार्य में लगने के स्थान पर सौन्दर्य प्रतियोगिताओं ,फैषनषो और फिल्मों में बर्बाद होती है तथा अपराधी व बुरे लोगों के जाल में उनके फंसने की सम्भावनाएं बढती जाती हैं। उच्च आदर्षों एवं प्रेरणा श्रोतों के अभाव में वे नित नए कुचक्रों में उलझते रहते हैं। सामाजिक एवं राश्ट्रीय दायित्व बोध से कटे हुए ऐसे लोगों का जीवन मात्र स्वार्थपरता के संकुचित घेरे तक ही सीमित रह जाता है। समाज के कर्णधार स्वयं ही यह चिंतन करें कि वे अपने अभिमन्युओं को क्या बना रहे हैं ?
षिक्षा के विशय में वर्तमान परिवेष में न तो छात्रों में वह पात्रता है और न ही विनम्रता। षिक्षक भी अपनी गरिमा के अनुरूप वह भूमिका नहीं निभा पा रहे हैं। षिक्षा के विशय में सभी मूर्धन्य विचारक एक मत से बताते हैं कि इसकी पूर्णता एवं समग्रता तब ही है, जब यह तीन लक्ष्यों को पूरा करे -(1) स्वावलंबन (2) व्यक्तित्व निर्माण (3) सामाजिक सद््भावना का विकास। षिक्षा व्यक्ति को जानकारी देकर उसे जिम्मेदार नागरिक बनाती है। भारत वर्श के ऋशियों ने सार्थक एवं सर्वांगपूर्ण षिक्षा की बात कहते हुए षिक्षा एवं विद्या के समन्वय से ही व्यक्तित्व के विकास की प्रक्रिया संपंन होते बताई है। ऋशियों की दृृश्टि में षिक्षा वह है जो व्यक्ति की उदरपूर्णा की आवष्यकता को पूरा करती हो एवं विद्या वह है, जो व्यक्ति में सुसंस्कारिता का समावेष करती हो। दोनों मिलकर एक समग्र , समुन्नत व्यक्तित्व का निमार्ण करती हैं।
षिक्षा का स्तर जहां ऊंचा होगा ,निष्चित रूप से वहां सभ्यता का विकास सर्वोच्च स्तर पर होगा ,किंतु यदि षिक्षा-विद्या का समन्वय हुआ तो संस्कारवान सुसंततियां समाज में बढती चली जाएंगी। षिक्षा जहां सभ्यता के विकास के लिए आवष्यक है, वहीं व्यावहारिक ज्ञान के संवर्धन तथा अपने पैरों पर खडे होने के लिए जरूरी है। वहां अपने जीवन के उद््देष्य को समझने, अनगढता को सुगढता में बदलने और ’जीवन जीने की कला’ के षिक्षण के रूप में एक पूरक की भूमिका निभाती है।
प्राचीन काल में समस्त प्रकार की प्रतिकूलताओं में रहते हुए भी गुरूकुल से निकलने वाला छात्र चरित्रनिश्ठा ,प्रतिभा व लोक सेवी प्रवृृत्ति की दृृश्टि से इतना खरा पाया जाता था कि सर्वसाधारण द्वारा इन्हे सतत्् सम्मान मिलता था। यदि आज यह षिक्षण तंत्र हमें सही बनाना है तो औपचारिक स्कूली-काॅलेज स्तर की षिक्षा के साथ ’जीवन जीने की कला’ का षिक्षण देने वाली विद्या का भी समावेष करना होगा। नैतिकता इसी रूप में छात्रों में एक सद्गुण के रूप में समाहित की जा सकेगी, तब न बेरोजगारी का कलंक हमारे सिर पर होगा, न ही उद््दण्डता से भरे छात्रों के उपद्रव और न ही खुले रूप में आम षिक्षकों की अवमानना देखने को मिलेगी।
ईस कृृपा बिनु गुरू नहीं, गुरू बिना नहीं ज्ञान।
ज्ञान बिना आत्मा नहीं, जीवन षून्य समान।।
पूर्वकाल में जो पहले अपने उदात्त चरित्र का प्रमाण देते थे। जिनमें विद्यार्थियों के चरित्र और ज्ञान को परिपक्व बनाने की, उनके मन और जीवन को सत्प्रेरणाएं देकर उत्कृृश्टता बनाने की क्षमता होती थी, उन्हे ही आचार्यत्व का पद प्राप्त होता था। प्राचीन काल में विष्वामित्र, वषिश्ठ, षुक्राचार्य ,व्यासयाज्ञवल्क्य , गौतम, भारद्वाज, अत्रि, भृगु, धौम्य, पतंजलि, पाणिनी, चरक, सुश्रुत, मनु, द्रोणचार्य, कृृपाचार्य, सांदीवनी, परषुराम, स्वामी विवेकानन्द, स्वामी रामकृृश्ण परमहंस, चाणक्य जैसे तपस्वी , प्रकाषवान, ज्ञानवान कृतित्व व व्यक्तित्व के धनी मूर्धन्य आचार्य हुआ करते थे एवं पिछले दिनों भारत में डाॅ. राधाकृृश्णन, मदनमोहन मालवीय , प. श्री राम षर्मा आचार्य, डाॅ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम जैसे दैदीप्यमान विद्ववान महापुरूश हुए हैं। जिन्होने भारत ही नहीं अपितु संपूर्ण वसुधा को प्रकाषित किया है। ऐसे गुरू के सानिध्य में रहकर षिश्य - साधना का तेजस्वी जीवन बिताते थे । साधना और स्वाध्याय के सम्मिश्रण से उनको आत्मज्ञान की अनुभूति हो जाती थी। फलस्वरूप न उन्हे भौतिक सुखों की न तो स्पर्धा होती थी न ही वे अधिकार प्राप्त करने के लिए लालायित रहते थे। गुरूकुल से स्नातक विदा के समय प्रतिज्ञा करते थे कि -’’मैं पृृथ्वी पुत्र हूं। भूमि मेरी माता है। मेरा जीवन मातृृभूमि की सेवा में अर्पित रहेगा। मै लोककल्याण की सेवा के लिए समर्पित रहुंगा सम्पूर्ण विष्व को अपने ज्ञान और षक्ति से उदीप्त रखने की मेरी चेश्ठा रहेगी । गुरूदेव द्वारा मैने जो ज्ञान और बल अर्जित किया है उससे अपने राश्ट्रों को जीवन्त और जागृृत रखूंगा।’’ परोपकार व लोककल्याण की भावना तब के षिश्यों में कूट-कूट कर भरी हुई होती थी। जैसे राश्ट्र एक वृृक्ष है और राश्ट्रवासी वृृक्ष पर निवास करने वाले पक्षी की तरह हैं। इस लिए कवि कहता है किः-
’’फल खाये इस वृृक्ष के , गन्दे कीन्हे पात। धर्म हमारा है यही, जलें इसी के साथ।।’’ षिक्षा की महत्ता पर अपने अमूल्य विचार करते हुए युगऋशि,वेदमूर्ति कि पं. श्री राम षर्मा आचार्य कहते हैं कि -
’’प्राचीन काल में षिक्षालय व्यक्तित्व ढालने की फैक्ट्रियां होती थीं। वहां जैसा वातावरण रहता था, जिस व्यक्तित्व के अध्यापक रहते थे, जैसा पाठ््यक्रम रहता था, जैसी व्यवस्था बरती जाती थी, उसका भारी प्रभाव छात्रों की मनोभूमि पर पडता था और वे भावी जीवन में बहुत कुछ उसी ढांचे में ढल जाते थे। आज षिक्षा का पूरा नियंत्रण सरकार के पक्ष में है , इसलिए छात्रों की मनोभूमि का निमार्ण करने की जिम्मेदारी भी बहुत कुछ उसी के ऊपर है। षिक्षण पद्धति में ऐसा सुधार करने के लिए सरकार को कहा जाए , जिससे चरित्रवान , कर्मठ, सभ्य और सेवाभावी नागरिक बनकर षिक्षार्थी निकल सकें । सैनिक षिक्षा को षिक्षण का अनिवार्य अंग बनाया जाए। और नैतिक एवं सांस्कृृतिक भावनाओं से विद्यालयों का वातावरण पूर्ण रहे। इसके लिए सरकार पर आवष्यक दबाव डाला जाये।’’
‘‘नास्ति विद्या समं चक्षु‘‘ अर्थात जिसके पास विद्या की आँखे हैं, उसे ही मानवता की पीड़ा, समस्याएं दिखेंगी और दूर करने में जुटेगा ।
स्वतंत्रता प्राप्ति के पष्चात षिक्षा पद्धति मे सुधार की आवष्यकता थी किंतु सुधार की स्थिति फटे कपड़े पर रफू (पेबंद) की तरह रही । प्रणाली वही रही, विष्वविद्यालय बढ़े, परिवर्तन तो कुछ हुआ नही । इन षिक्षा केन्द्रो से डिग्रीधारियो की सेना प्रतिवर्श निकलने लगी । पढ़ाई करने पर डिग्री पाओ और डिग्री पाकर नौकरी पाओ। बेकारो की संख्या आज बढ़ते- बढ़ते करोड़ो तक पहुच गई है । वर्तमान षिक्षा छात्र को स्वावलंबी नही बनाती अपितु पंगू बनाती । पढ़ -लिखकर व्यक्ति साहब बनना चाहता है और स्थिति यह हो जाती है कि वह अपना काम करने मे हीनता महसूस करता है । प्राचीनकाल मे षिक्षार्थी की पात्रता, योग्यता को परख कर उपाधियां, गोत्र, वर्ण दिये जाते थे किंतु वर्तमान मे तो योग्यता को दरकिनार कर आरक्षण (जाति) , चेहरे के आधार पर भर्ती हो रही है। जिसका परिणाम राश्ट्र व समाज की दुर्दषा के रूप मे हम सभी के सामने है। कमजोर विद्यार्थी को सुविधा दी जानी चाहिए ,अवसर दिये जाने चाहिए किंतु पात्रता के अभाव मे पद नहीं । प्राचीनकाल मे ब्राम्हण उच्चमेधा, तप ,संस्कार इत्यादि सदगुणो से युक्त होने के कारण उन्हे षिक्षक, आचार्य, कुलपति इत्यादि महत्वपूर्ण कार्य दिया जाता था । किंतु यह कटु सत्य है कि इस आरक्षण पद्धति ने षिक्षा जगत को बर्बाद कर दिया । क्योकि ‘‘जैसा सांचा होता है वैसा खिलौना‘‘ बनता है । संकुचित बातो मे षिक्षा का आदर्ष और विकास सीमित कर दिया गया तो वह पंगू तो बनेगी ही ना । वर्तमान षिक्षा छात्र को प्रमादी, अहंकारी, निठल्ला, उछंखल,मर्यादाहीन बना रही है। आज के विद्यार्थी, वास्तविक विद्या के अर्थी न होकर केवल सार्टिफिकेटधारी बनकर रह गये हैं। हमारे राश्ट्र नायक षिक्षा मे धार्मिकता का समावेष करने मे हिचकते हैं चाहे उसके अभाव मे हमारे बालक चरित्रहीन हों, प्रपंची, उदंड स्वभाववाले ही क्यो ना बन जायें । हम तो भारत को इण्डिया बनाने मे लगे हुए हैं। एक विकासषील देष के उत्तरदायी नागरिक मे समाज तथा विष्वमानव के प्रति जो दृश्टिकोण होना चाहिए, उसे उत्पन्न करने मे भी यह षिक्षा पद्धति लगभग असमर्थ -सी रही है । षिक्षक, विद्यार्थी और अभिभावक सभी वर्तमान षिक्षा पद्धति मे क्रांति चाहते हैं। जीवन के तीन आधार रोटी ,कपडा, मकान है किंतु षिक्षा इन तीनों के ऊपर एवं इनसे भी अधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि षिक्षा के बिना जीवन षून्य है, अंधकारमय है ,व्यर्थ है। स्वामी विवेकानंद का षिक्षा के प्रति विचार था कि -’’षिक्षा का दद््देष्य मनुश्य की अंतर्निहित क्षमताओं को पूर्ण विकसित करना है। षिक्षा का अर्थ है उस पूर्णता को व्यक्त करना , जो सब मनुश्यों में पहले से विद्ययमान है। जो षिक्षा साधारण व्यक्ति को जीवन संग्राम में समर्थ नहीं बना सकती ,जो मनुश्य में चरित्रबल , परहित भावना तथा सिंह के समान साहस नहीं ला सकती , वह भी कोई षिक्षा है जिस षिक्षा के द्वारा जीवन में अपने पैरों पर खडा हुआ जाता है वही है सच्ची षिक्षा । हमें ऐसी षिक्षा की आवष्यकता है, जिससे चरित्र निमार्ण हो ,मनुश्य की मानसिक षक्ति बढे , उसकी बुद्धि विकसित हो और मनुश्य अपने पैरों पर खडा होना भी सीखे । षिक्षा का अर्थ जानकारियां इकट्ठी करना नहीं दिषा ग्रहण करना है। षिक्षा का मतलब यह नहीं है कि तुम्हारे दिमाग में ऐसी बहुत सी बातें इस तरह ठूंस दी जाएं कि उन्हें तुम्हारा दिमाग जीवन भर हजम न कर सके। यदि तुम पांच ही बातों को हजम कर तदनुसार जीवन और चरित्र गठित कर सके हो तो तुम्हारी षिक्षा उस आदमी की अपेक्षा बहुत अधिक है, जिसने एक पूरी की पूरी लाईब्रेरी ही कंठस्थ करली है। षिक्षा क्या वह है जिसने निरन्तर विचार षीलता को बलपूर्वक पीढ़ी दर पीढ़ी रोककर प्रायः नश्ट कर दिया है। जिसके प्रभाव से नये विचारों की तो बात जाने दीजिए , पुराने विचार भी एक-एक करके लोप होते चले जा रहे हैं। क्या वह षिक्षा है जो मनुश्य को धीरे -धीरे यंत्र बना रही है।’’ वर्तमान समय में इक्कीसवीं सदी में हमें अपने एजुकेषन सिस्टम की समीक्षा करने की आवष्यकता है।
वर्तमान षिक्षा का स्वरूप वर्तमान परिवेष की आवष्यकताओं, समस्याओं के समाधान का केन्द्र होना चाहिए। राश्ट्रीय चैतन्य के प्रकाष में इसकी गंभीर समीक्षा होनी चाहिए। जीवन का स्वरूप और उपभोग सिखा सकने वाली षिक्षा चाहिए। लोकमानस को परिश्कृत कर सकने वाली षिक्षा चाहिए। सतत् षिक्षा का सिद्धान्त लागू किया जाये। षिक्षा को सार्थक करे ऐसी विषिश्टता विकसित हो कि षिक्षा प्रणाली प्रतिश्ठा योग्य बने। षिक्षा में सुसंस्कारिता , स्वावलंबन, कुटीर उद्योगों , व्यवहारिक ,अनौपचारिक , विद्या का समन्वय, सर्वांगीण ,समग्र, आधुनिकता से तालमंेल , ‘अध्यात्म व विज्ञान का समन्वय‘ इत्यादि तत्वों को जोडा जाना चाहिए।
उम्मीद जगी थी कि आजादी के बााद देष का षिक्षा तंत्र अपने देष की संस्कृृति व प्रकृृति के अनुरूप राश्ट्रीय स्वाभिमान जगाने वाली षिक्षा नीति व पाठ््यक्रम का निर्माण करेगा, किंतु ऐसा ना हो सका। हमारे देष के संचालकों, कर्णधारों ने वही अंग्रेजी षिक्षा पद्धति लागू करके देष को पष्चिमी चिंतन, चरित्र के ढांचे में ढाल दिया। वर्तमान में देष के उच्च षिक्षण संस्थानों की दुर्दषा के माॅडल जे.एन.यू. दिल्ली के रूप में दिखाई देते हैं वह इसी का परिणाम है। स्वामी विवेकानन्द ने कहा था कि -’’व्यक्ति निर्माण -राश्ट्र निर्माण‘‘ होगा। किसी देष का विकास बहुसंख्यक भीड के सहारे नहीं बल्कि मूर्धन्य प्रतिभाओं के सहारे होता है। जापान, सिंगापुर, दक्षिण कोरिया, मलेषिया,कंबोडिया, डेनमार्क, चीन, क्यूबा, जैसे देष कल परसों तक घोर विपन्नता में घिरे हुए थे, देष की प्रतिभाओं , विकास का संकल्प व सामूहिक पुरूशार्थ के बल पर संपंन राश्ट्रों की श्रेणी में पहुंच गये। इसी बात की पुश्टि स्वामी विवेकानन्द के इस कथन से होती है कि ’’हम सभी को इस समय कठिन श्रम करना होगा। हमारे कार्यों पर ही भारत का भविश्य निर्भर है। देखिये! भारत माता धीरे-धीरे आंख खोल रही हैं। अब तुम्हारे निद्रामग्न रहने का समय नहीं है। उठिये और मां भगवती को जगाइये और पूर्व की तरह उन्हे महागौरव मंडित करके, भक्तिभाव से उन्हे अपने महिमामय सिंहासन पर प्रतिश्ठित कीजिए।’’ अतः हर देषवासी को षिक्षा और स्वास्थ्य की सेवाएं मूलभूत अधिकारों के रूप में प्राप्त हों। जब तक सभी नागरिकों को गुणात्मक षिक्षा और स्वास्थ्य की सुविधाएं नहीं होंगी, देष के सर्वागींण विकास व आर्थिक संपन्नता की कल्पना असंभव है।
इसी परिप्रक्ष्य में भारत के पूर्व राश्ट्रपति, वैज्ञानिक, राश्ट्रभक्त डाॅ. ए.पी.जे.कलाम, देव संस्कृृति विष्वविद्यालय हरिद्वार के दीक्षांत भाशण में 9 जुलाई 2006 को छात्रों को षपथ दिलाते हुए कहते हैं कि -’’
1. मुझे इस बात का विष्वास है कि जीवन में एक लक्ष्य तय करना अनिवार्य है। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए मुझे अपार ज्ञान प्राप्त करना होगा।
2. इस राश्ट्र के युवा के तौर पर मैं साहस के साथ कठोर परिश्रम करने के लिए तैयार हूं। साथ ही अपने साथ दूसरों की सफलता का आनन्द उठाने के लिए संकल्पित हूं।
3. मैं स्वयं अपने घर ,अपने परिवेष, पडौस और पर्यावरण को सदा स्वस्थ्य रखूंगा।
4. मुझे इस बात का विष्वास है कि हृृदय की सत्यता ,चरित्र की सुदरता में बदल जाती है। चरित्र परिवार में सद््भावना लाता है। परिवार की षांति ,राश्ट्र मे और राश्ट्र की षांति ,विष्व में सद््भाव लाती है।
5. मैं हर दृृश्टि से भ्रश्टाचार मुक्त जीवन जिऊंगा और अपनी जिंदगी से दूसरों के लिए मिसाल बनूंगा।
6. मैं देष में ज्ञान का दीप जलाऊंगा और इसके सदा प्रज्जवलित रहने के लिए प्रयत्नषील रहूंगा।
7. मुझे इस बात का अहसास है कि यदि मैंने यथाषक्ति अच्छे से अच्छे काम किया तो 2020 तक देष को विकसित बनाने में यह एक महत्वपूर्ण योगदान होगा।’’
’’ध्रियते अनेनेति धर्मः’’ अर्थात धर्म ही मनुश्य में उसके मनुश्यत्व को धारण किये रहता है। मनुश्यत्व का ही दूसरा नाम धर्माचरण है। धर्महीन मनुश्य पषु के समान है। षास्त्र को त्याग कर हम धर्म को भूल गये हैं। जिस दिन हम अपने धर्म को भूल गये हैं, जिस दिन हम अपने धर्म को भूल गये है, उसी दिन यर्थात षिक्षा एवं विद्या से भी वंचित हुए हैं। इसीलिए तो षास्त्र कहता है कि-’’ श्रद्धावान लभते ज्ञानं तत्परः संमतेन्द्रियः’’इसी प्रकार से -’’ज्ञानं च समदर्षनम््’’ अथवा ’’अभेद दर्षनम्् ज्ञानम्् ’’ ज्ञानी पुरूश सभी को एक दृृश्टि से देखता है भेद नहीं करता है। षास्त्रों में ज्ञानी को धर्माचरण करने वाला कहा गया है अतः
’’धृतिः क्षमा दमोस्तेयं षौचम्् इन्द्रिय निग्रहः।
धी र्विद्या सत्यमक्रोध दषकं धर्म लक्षणं।।’’ धृृति ,क्षमा ,षौच अर्थात सदाचार, इन्द्रिय संयम, धी, विद्या, सत्य, अक्रोध यें दस धर्म षील (ज्ञानी) के लक्षण हैं।
वास्तविक षिक्षा वह है, जिससे मनुश्य अभ्युदय और निःश्रेयस दोनों पथ का पथिक बन सके। जिससे मनुश्य का तन सबल, मन स्वच्छ हो ,वह छल-प्रपंच रहित, परोपकारी, बुद्धिमान तथा एक सुयोग्य नागरिक बने वही सच्ची षिक्षा कही जा सकती है। वर्तमान षिक्षा में आध्यात्म का समन्वय करना ही होगा तभी यह मनुश्य गढने वाली बन सकेगी । षिक्षा जीवन निर्माण का कारण है। षिक्षा षुभसंस्कार, सकारात्मक चिंतन, समाज, राश्ट्र,विष्व के प्रति देने वाली होनी चाहिए। विष्व मानव के प्रति कर्तव्य बोध व संवेदना वाली होनी चाहिए ना कि सिर्फ डाॅक्टर, इंजीनियर, वकील बनाने वाली। प्राचीन समय में गुरूकुल के विद्यार्थी उस समय राश्ट्र की निधि समझे जाते थे, आचार्यों द्वारा षिक्षा प्राप्त करके षिक्षार्थी एक सफल गृृहस्थ ,विद्ववान ,सदाचारी, अध्यात्म तत्व विज्ञानी आत्मिक होता था और साथ ही मनुश्य भी। षिक्षा ऐसी हो जो मश्तिश्क के साथ हृृदय को भी विषाल एवं उदार बनाए। षिक्षा में नैतिक षिक्षा का पूरा-पूरा समावेष यदि किया गया होता तो वर्तमान मे जो हिंसा, भ्रश्टाचार, अनैतिकता की बाढ़ सी आई हुई है वह नहीं आती । देष के सामने अनेक समस्याएं मुंह बाये खडी हैं। इनका हल चुटकी में निकल आता यदि लोगों में राश्ट्रीयता की भावना इस षिक्षा ने जगाई होती। राश्ट्र भक्ति ले हृृदय में ,हो खडा यदि देष सारा। संकंटो को मात देकर, राश्ट्र विजयी हो हमारा।।
References
ब्रहा्रवर्चस-वर्तमान चुनौतियाँ और युवा वर्ग, पृ. 7-31, प्रकाषन- युग निर्माण योजना तपोभूमि, मथुरा, (उ.प्र.), वर्श 2006
पं. श्रीराम षर्मा आचार्य- युग निर्माण का षत सूत्री कार्यक्रम, पृ. 59, प्रकाषन-युग निर्माण योजना तपोभूमि, मथुरा, (उ.प्र.), वर्श 2013
अखण्डज्योति- पत्रिका, पृ. 7, अक्टूबर 2016, प्रकाषन- अखण्ड ज्योति, संस्थान घीयामंड़ी, मथुरा (उ.प्र.)
पं.श्री रामषर्मा आचार्य- षिक्षा एवं विद्या (वाग्डमय) पृ. 11 सम्पादन- ब्रहावर्चस , प्रकाषन- अखण्ड ज्योति संस्थान, मथुरा (उ.प्र.), वर्श-1998
वही-1.9
वही -1.55
डाॅ. सतीश मित्तल- विवेकानंद इतिहास दृश्टि, पृ.9 -29, प्रकाषन- अखिलभारतीय इतिहास संकलन योजना, नई दिल्ली, वर्श 2013
षिक्षा और धर्म- पृ.8, प्रकाषन- षास्त्रधर्म प्रचारसभा, 91 चैरंगी रोड, कोलकाता -20, वर्श -2010
भगवती देवी षर्मा- बच्चों की षिक्षा ही नही दीक्षा भी आवष्यक, पृ. 16-17 ,प्रकाषक - गायत्री तपोभमि, मथुरा (उ.प्र.), वर्श 2011
डाॅ0 अषोक मोडक- व्यक्तित्व व राश्ट्रीय चरित्र, पृ. 23, प्रकाषक- सुरूचि प्रकाषन, केषवकुंज, झण्डेवाला, नई दिल्ली, वर्श 2006
अखण्ड ज्योति- मासिक पत्रिका, पृ.7 जुलाई 2016, सम्पादक-डाॅ0 प्रणव पंडया, प्रकाषक-अखण्ड ज्योति संस्थान, घीयामंडी मथुरा, (उ.प्र.)
रचना - दिमासिक पत्रिका, पृ.24, जनवरी -फरवरी 2016, सम्पादक-प्रो. सेवाराम त्रिपाठी, प्रकाषन- म.प्र. हिन्दी ग्रंथ अकादमी, वाणगंगा भोपाल,
रचना - दिमासिक पत्रिका, पृ.22, नवम्बर -दिसम्बर 2010, सम्पादक-प्रो. सेवाराम त्रिपाठी, प्रकाषन- म.प्र. हिन्दी ग्रंथ अकादमी, वाणगंगा भोपाल,
रचना (षिक्षा गुणवत्ता विषेशांक)- दिमासिक पत्रिका, पृ.18, जुलाई -अगस्त 2012, सम्पादक-प्रो. सेवाराम त्रिपाठी, प्रकाषन- म.प्र. हिन्दी ग्रंथ अकादमी, वाणगंगा, भोपाल,
चना (षिक्षा गुणवत्ता विषेशांक)- दिमासिक पत्रिका, पृ.12-13, सितम्बर-अक्टूबर 2012, सम्पादक-प्रो. सेवाराम त्रिपाठी, प्रकाषन- म.प्र. हिन्दी ग्रंथ अकादमी, वाणगंगा, भोपाल,
विवेकानंद साहित्य, भाग-8 पृ. 133, (कोलकाता 1989)
वही पृ. 132-168
अखण्ड ज्योति - पत्रिका, पृ. 7 फरवरी 2016, प्रकाषन- अखण्ड ज्योति संस्थान घीयामड़ी, मथुरा, (उ.प्र.)
अखण्ड ज्योति - पत्रिका, पृ. 7 नवम्बर 2015 प्रकाषन- अखण्ड ज्योति संस्थान घीयामड़ी मथुरा (उ.प्र.)
युग निर्माण योजना - पत्रिका, पृ. 13, अप्रैल 2016, प्रकाषन- अखण्ड ज्योति संस्थान घीयामड़ी, मथुरा (उ.प्र.)
हिन्दवः सोदराः सर्वे- पृ.13, प्रकाषक- अर्चना प्रकाषन दीनदयाल परिसर, ई-2, अरेरा कालोनी, भोपाल (म.प्र.), वर्श-2015
सुरेष सोनी- हमारी सांस्कृतिक विचारधारा के मूल स्त्रोत, पृ. 19-122, प्रकाषन- लोकहित प्रकाषन, संस्कृति भवन, राजेन्द्र नगर, लखनऊ (उ.प्र.) वर्श 2006
Downloads
Published
Issue
Section
License
Copyright Notice
Submission of an article implies that the work described has not been published previously (except in the form of an abstract or as part of a published lecture or academic thesis), that it is not under consideration for publication elsewhere, that its publication is approved by all authors and tacitly or explicitly by the responsible authorities where the work was carried out, and that, if accepted, will not be published elsewhere in the same form, in English or in any other language, without the written consent of the Publisher. The Editors reserve the right to edit or otherwise alter all contributions, but authors will receive proofs for approval before publication.
Copyrights for articles published in World Scholars journals are retained by the authors, with first publication rights granted to the journal. The journal/publisher is not responsible for subsequent uses of the work. It is the author's responsibility to bring an infringement action if so desired by the author.