भारत वर्ष की विष्व को देन

Authors

  • डाॅं.नितिन सहारिया शा.एम.एम.महाविद्यालय कोतमा अनूपपुर (म.प्र.)

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Abstract

भारत वर्ष एक स्वर्णिम अतीत वाला चिर पुरातन देष है ,जिसमें कभी तैंतीस कोटि देवता निवास करते थे ,जिसे कभी स्वर्गादपि गरीयसी कहा जाता था। जिसके अनुदानों से विष्व-वसुधा का चप्पा-चप्पा लाभान्वित हुआ है। भारत ने ही अनादिकाल से समस्त संसार का मार्ग-दर्षन किया है। ज्ञान और विज्ञान की समस्त धाराओं का उदय ,अवतरण भी सर्वप्रथम इसी धरती पर हुआ पर यह यहीं तक सीमित नहीं रहा यह सारे विष्व में यहां से फैल गया। सोने की चिड़िया कहा जाने वाला हमारा भारतवर्ष जिसकी परिधि कभी सारी विष्व-वसुधा थी ,आज अपने दो सहस्त्र वर्षीय अंधकार युग के बाद पुनः उसी गौरव की प्राप्ति की ओर अग्रसर है। ‘‘सा प्रथमा संस्कृति विष्वाराः’’ यह उक्ति बताती है कि हमारी संस्कृति ,हिन्दू संस्कृति देव संस्कृति ही सर्वप्रथम वह संस्कृति थी जो सभी विष्वभर में फैल गयी। जिस देष का अतीत इतना गौरवमय रहा हो ,जिसकी इतनी महत्वपूर्ण सांस्कृतिक पुण्य परंपरायें रहीं हों ,उसे अपने पूर्वजों को न भुलाकर अपना चिंतन और कर्तव्य वैसा ही बनाकर दैवोपम स्तर का जीवन जीना चाहिये। वस्तुतः सांस्कृतिक मूल्य ही किसी राष्ट्र की प्रगति ,अवगति का आधार बनते हैं। जब इनकी अवमानना होती है ,तो राष्ट्र पतन की ओर जाने लगता है।
भारतवर्श को प्राचीन काल में आर्यावर्त के नाम से भी पुकारा गया है। ’आर्य ’ अर्थात श्रेश्ठ संतति। आर्यावर्त (हिमालय) ही मानव की मूल जाति का उत्पत्ति स्थान है और आर्य ही आदीमानव हंै। आधुनिक काल के वैज्ञानिक मान रहे हैं कि विष्व के सभी प्रकार के मनुश्यों की विभिन्न आनुवांषिक संरचना का मूल रूप भारतीयों के ’जीन’ में पाया जाता है। वैज्ञाानिक उत्साहित है कि यह भूमि (भारत) आनुवांषिक विविधता का उद्गम स्थल है। मैक्समूलर ने भी यह स्वीकार किया था कि - ’’आर्यों का मूल निवास स्थल एषिया में संभवतः भारत में हो सकता है।’’ प्रख्यात इतिहासविद् नारायण रामचंद्र भावे अपने ग्रंथ ’मैं हिन्दू क्यों हूं’में लिखते हैं कि- ’’मनुश्य सर्वप्रथम वैवस्वत मन्वन्तर में हिमालय के मानसरोवर व कैलाष पर्वत के बीच में जन्मा या अस्तित्व में आया।सृश्टि का प्रथम मानव ’मनु’ था और मनु व मानसारोवर के कारण मनुश्य, मानस, मैन, मानव षब्द से संबोधित किया गया।’’ इसी संदर्भ में प्रसिद्ध पत्रिका ’इण्डिया टुडे’ 23.09.2009 के अपने अंक में अनेक आंकडों व निश्कर्शों का हवाला देते हुए लिखती हैं कि -’’ विष्वभर में जितने विविध प्रकार के मनुश्य हैं जिनमें सभी संभावित अनुवांषिक संरचना विद्ययमान है, उन सबका मूल है उनका भारतीय होना एवं अनुवांषिक विविधता का उद्गम इसी उपमहाद्वीप में मूल रूप से हुआ , न कि यह तथा कथित आर्यों कि घुसपैठ का परिणाम था, जैसा कि अब तक कुछ इतिहासकारों ने भ्रम फैलाया था।’’ इस तथ्य की पुश्टि आज से हजारों वर्श पूर्व षतपथ ब्राम्हण में मिलती है। स्वामी विद्यानंद सरस्वती ’आर्यों का आदिदेष और उनकी सभ्यता में लिखते हैं कि-’’मानव जाति का प्रादुर्भाव हिमालय -क्षेत्र में ही हुआ है।’’ हिमालय को आदिमानव का मूल स्थान बताने के लिए सात कसौटियां स्पश्ट की गई हैं। -1. वह स्थान संसार भर में सबसे ऊंचा और पुराना हो। 2. उस स्थान में सर्दी और गर्मी जुड़ती हों। 3. उस स्थान में मनुश्य की प्रारंभिक खुराक फल एवं अन्य उपलब्ध हों। 4. उस स्थान के आस पास ही सब रूप - रंगों के विकास और विस्तार की परिस्थितियां हों। 5. उस स्थान पर अब भी पुरूशों के रंग -रूप के मनुश्य बसते हों। 6. उस स्थान का नाम सभी मनुश्य जातियों को स्मरण हों। 7. वह स्थान उच्चकोटि के देषी और विदेषी विद्वानों के अनुमान के बहुत विरूद्ध न हो। उपयुक्त सात कसौटियों में से पांच वैज्ञानिक तथ्य हैं, जो उस स्थान के लक्षण हैं और दो ऐतिहासिक तथ्य हैं।; जो उक्त पांचों की पुश्टि करते हैं। इतिहासकारों के अनुसार समस्त लक्षण एवं प्रमाण भारत के हिमालय पर ही घटते हैं। अतः हिमालय पर्वत- भारत वर्श ही मानव का मूल स्थान है।
पुरातन भारत का ज्ञान-विज्ञान आज के वैज्ञानिक युग की उपलब्धियों को भी चुनौती देने में सक्षम है ,हमारी वैदिक संस्कृति में वह सब है जो आज का अणु विज्ञान हमें बताता है। भारत के स्वर्णिम अतीत पर एक दृष्टि डालें तो पता चलता है कि प्रवज्या-तीर्थ यात्रा के माध्यम से हमारी संस्कृति का विस्तार प्राचीन काल में कहां-कहां तक हुआ था। अमेरिका ,लातिनी अमेरिका ,मैक्सिको ,जर्मनी ,जिसे यूरोप का आर्यवर्त कहा जाता है ,मिश्र से लेकर दक्षिण अफ्रीका तक ,कम्पूचिया ,लाओस ,चीन ,जापान आदि देषों में स्थान-स्थान पर ऐसे अवषेष विद्यमान है जो बताते हैं ,कि आदिकाल में वहां भारतीय संस्कृति का ही साम्राज्य था। यह विस्तार मात्र धार्मिक ही नहीं था ,अपितु ,विष्व राष्ट्र की अर्थ-व्यवस्था ,षासन संचालन व्यवस्था ,कला ,उद्योग ,षिल्प आदि सभी में भारतीय संस्कृति का योगदान रहा है। माॅरीषस , आस्ट्रेलिया , फिजी ,व अन्य प्रषांत महासागर के छोटे-छोटे द्वीप ,रुस ,कोरिया ,मंगोलिया ,इंडोनेषिया ,ष्यामदेष आदि के विस्तृत उदाहरणों से हमें भारतीय - संस्कृति के विष्व संस्कृति होने की झलक मिलती है।
वेद शब्द ‘विद’ धातु से व्युत्पन्न है ,जिसका अर्थ होता है - ज्ञान। इस संसार में ज्ञान-विज्ञान की जितनी भी धाराएं हैं ,सभी का मूल उद्गम वेद ही है। वैसे भी वेद (ऋग्वेद) को विष्व का प्राचीनतम ग्रंथ माना जाता है। श्रीमद्भागवत (12/17/47) के अनुसार आरंभ में वेद (ऋक् के रुप में) एक ही था ,किंतु द्वापर के अंत में समय और परिस्थिति की आवष्यकता को देखते हुये कृष्ण द्वैपायन व्यास नें उसे ऋक् ,यजुः ,साम और अर्थव चार भागों में बांट दिया। इस प्रकार एक ही ज्ञानागार के चार खण्ड हो गये और सम्प्रति हम उन्ही की विभिन्न धाराओं को ज्ञान एवं विज्ञान के रुप में पढते ,सुनते और देखते हैं। मूर्धन्य मनीषी केषव पटवर्धन अपने शोधपूर्ण ग्रंथ ‘‘ ऋषियों के विज्ञान की श्रेष्ठता ’’ की प्रस्तावना में लिखते है कि ‘‘वैदिक ग्रंथों’’ में निर्देषित विज्ञानिक निष्कर्षो को हम किसी भी भाषा में निरुपित करें ,यदि वे आधुनिक वैज्ञानिक सिद्धांतों से संगति और साम्य रखते हैं ,तो हमें बात को स्वीकारनें में तनिक भी संकोच नहीं करना चाहिये कि कई हजार वर्ष पूर्व हमारे प्राचीन ऋषियों को इन नियमों और सिद्धांतों का संपूर्ण ज्ञान अवष्य था। शंका और संदेह की गुुंजाइष तब और खत्म हो जाती है ,जब विज्ञान के विकास को इंगित करने वाले सैकडों-हजारों की संख्या में वाक्य प्राचीन साहित्य में देखने को मिल जाते हैं ,इसे महज संयोग नहीं कहा जा सकता।
कणाद प्रणीत ‘वैषेषिक दर्षन’ के अवलोकन से ज्ञात होता है कि परमाणु विज्ञान में उन्हे महारत हासिल थी। अतः यदि उन्हे विज्ञान की इस विधा का जनक कहा जाये ,तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी। भारद्वाज रचित ‘‘भारद्वाज संहिता’’ में विज्ञान की अनेक धाराओं का वर्णन आता है ,जिसमें ‘‘वैमानिकी’’ विषय को विषेष प्रमुखता दी गई है। ‘‘षुल्ब सूत्र’’ में पदार्थ विज्ञान की विभिन्न शाखा-प्रषाखाओं का विषद् वर्णन था ,यजुर्वेद का कात्यायन शुल्ब सूत्र ही सम्प्रति उपलब्ध है ,जिसमें ज्यामिति शास्त्र का विस्तृत उल्लेख है। यजुर्वेद के उपवेद धनुर्वेद में शस्त्र-अस्त्रों ,आग्नेयास्त्रों के निर्माण प्रक्रिया की चर्चा है।
एक आख्यान के अनुसार महाभारत युद्व में महाराजा अम्बरीष के पास एक ऐसा शस्त्र था ,जिसके प्रहार से एक अक्षौहिणी सेना का संहार करके ,षस्त्र सुरक्षित उनके पास वापस आ जाता था ? आज इसकी तुलना परमाणु बमों से की जा सकती है ,पर फिर भी आज का विज्ञान तब के विज्ञान के सदृष्य विकसित नहीं माना जा सकता ,क्योंकि आज के बमों का प्रयोग सिर्फ एक ही बार किया जा सकता है , जबकि प्राचीन शस्त्रों की विषेषता थी कि उन्हे अनेकानेक बार काम में लाया जा सकता है । इसके अतिरिक्त प्राचीन साहित्यों में ’क्राकीक’ ’,चित्राग्नि’ तथा ’स्वाति’ जैसे अनेक विलक्षण यंत्रों का वर्णन आता है , ‘क्राकीक’ में यह विषेषता थी कि व्यक्ति की एक बूंद रक्त से ही वह उसका पूरा चित्र प्रस्तुत कर देता था। ‘चित्राग्नि’ वर्तमान टेलीविजन के समान ‘क्रिस्टल बाॅल’ जैसा उपकरण था। जबकि ‘स्वाति’ यंत्र की विषिष्टता यह थी कि वह वर्षो पूर्व कहे शब्दों को वायुमण्डल से पकड़कर पुनः सम्प्रेषित कर सकता था। इसके साथ ही चालक रहित मोटरो की भांति तीव्र गति से जमीन पर चलने वाले रथों (ऋग्वेद 6/66/7) ,(यजुर्वेद 9/8) तथा अति वेगवान विमानों (ऋग्वेद 1/116/34 ,1/37/1) की भी स्थान-स्थान पर चर्चा मिलती है।
‘भोज प्रबंध’ ग्रंथ में इस बात का उल्लेख मिलता है कि राजा भोज के पास काष्ठ का एक ऐसा अष्व था ,जिसकी गति एक घडी में ग्यारह कोस थी। ‘धम्मपद’ ग्रंथ में एक ऐसे ही यंत्र का वर्णन आता है। कौषाम्बी नरेष उद्यन की उज्जयिनी नरेष चंड प्रद्योत से शत्रुता थी। प्रद्योत ने उन्हे बंदी बनाने के लिये एक ‘हस्ति यंत्र’ तैयार किया ,जो हाथी के समान चल-फिर सकता था। प्रथोत ने इस लकडी के हाथी को उद्यन के वन में छोड दिया। उद्यन को इस बारे में पता चला तो वे उसे देखने गये ,जहां उन्हें यंत्र ने पकड़ लिया। ‘गया चिन्तामणि’ नामक पुस्तक में मयूर आकृति वाले विमान तथा बाल्मीकि रामायण (सुंदरकाण्ड) में पुष्पक विमानों का वर्णन मिलता है।
महायोगी अनिवार्ण के ग्रंथ ‘वेद मीमांसा’ के अनुसार उसने अंतः और बाहृा प्रकृति पर अनूठे प्रयोग किये। ऐसे प्रयोग जिनसे मनुष्य देवता बन गया और धरती स्वर्ग। इस ‘असंभव और आष्चर्य जनक’ के पीछे झांकने वाले तथ्यों को परखे तो प्रक्रियाओं का मौलिक अंतर समझ पडता है। प्राच्य विद्या के विषेषज्ञ डां. गोपीनथ कविराज के अध्ययन ‘‘भारतीय संस्कृति और साधना’’ के शब्दों मेें आज की शोध प्रक्रियायें जिन्हे विज्ञान की विभिन्न शाखा-उपषाखाओं का समूह कह लें विष्लेषण करने में समर्थ बुद्धि की उपज है। देव संस्कृति के विभिन्न पक्षों की खोज के पीछे अंतज्र्ञान संपंन्न संवेदनषील मन को ढंूढा जा सकता है। आज के जीवन में यदा-कदा ऐसे अवसर आ जाते हैं ,जब पुरानी शोध को नवीन मुल्यांकन से गुजरना पडता है। परिणति आष्चर्यजनक ढंग से सुखद होती है। अतः ऋषि-मुनि कहे जाने वाले शोध विज्ञानी यंत्रों और बहुमूल्य प्रयोगषालाओं के अभाव में इन निष्कर्षो तक कैसे पहुंच सकें ,इन सब तथ्यों को संयोग कहकर चुप्पी साध लें। पर संयोग एक आध हो सकते हैं। मानवीय ज्ञान के विविध क्षेत्रों में इनका भरा-पूरा सिलसिला इस बात को प्रमाणित करता है कि कहीं न कहीं तथ्यांकन की कोई प्रणाली अवष्य रही है।
चरक का आयुर्विज्ञान ,वराहमिहिर ,आर्यभट्ट की खगोल गणनाएं ,पतंजलि का मानसषास्त्र ,गोरक्षनाथ की हठ योग प्रणाली ,विभिन्न दार्षनिक पद्धतियों के सृष्टि और मनुष्य संबंधी गहरे सर्वेक्षण प्रयोगों की कसौटी पर कसने पर यह मानने के लिये विवष करते हैं कि यह सब कल्पना लोक की उडाने नहीं है। तब क्या सुसज्जित प्रयोगषालायें थी जिनका न उल्लेख न अवषेष मिलता है ? इस प्रष्न का सुसंगत उत्तर इतना ही है। कि प्रणाली तो थी पर आज से भिन्न। उन दिनों प्रारंभ से हीे अपनी अंतः प्रकृति को तरह-तरह के गंभीर प्रयोगों द्वारा इस लायक बना दिया जाता था कि वह सृष्टि के विभिन्न रचनाक्रमों और इसकी उपादेयता का सम्यक ज्ञान अर्जित कर सके। ऐसे शोधार्थी के रुप में चरक और उनके सहयोगी किसी पौधों के प्राण स्पंदनों से अपने अन्तर्बोध संपंन्न मन को एकाकार करके पौधे की गुणवत्ता ,उसके भाग विषेष की रोग निवारण की विभिन्न क्षमताओं का ज्ञान अर्जित कर लेते थे। प्राचीन ज्ञान की सभी शाखाओं-उपषाखाओं में ज्ञान की चार विधियों का उल्लेख मिलता है। इंद्रियानुभूति द्वारा अंतर्बोध सम्पन्न मन से , विष्लेषण क्षमता सम्पन्न बुद्धि से ,और गहरे आत्मिक तादात्म्य द्वारा। आधुनिक समय में ऋषि अरविंद ‘लाइफ डिवाइन’ ,में इसी अंतिम विधि को श्रेष्ठ बताया है। देव संस्कृति को जन्म देने वाले इस विधि में निष्णांत् थे। यही कारण है ,उन्होने इस उत्कृष्ठ विधि के रहते निम्न विधियों का कम ही प्रयोग किया है।
ऋषियों की चिंतन सम्पदा के वेदांत दर्षन ने क्वांटम भौतिकी के वैज्ञानिक पारनर हाइजनवर्ग की सोच में व्यापक उलट-फेर कर दी। क्या यह दार्षनिक चिंतन किन्हीं अनुभूतियों पर आधारित है ? क्या इनको आधुनिक विज्ञान के द्वारा परख सकना संभव है ? इन महत्वपूर्ण सवालों को लेकर हाइजनवर्ग सन् 1929 में भारत आये। विश्वकवि रविन्द्र नाथ टैगोर से इस चिंतन के विषेष बिंदुओं पर गंभीर चर्चा की और वापस लौटकर प्रयोगो में जुट गये। कुछ ही समय बाद उन्होने भौतिकी जगत को ‘अनिष्चितता का सिद्धांत’ दिया जो और कुछ नहीं वेदांत के इस तत्व की व्याख्या है कि पदार्थ का स्वरुप प्रति क्षण अनिष्चित है। उन्होने अपने ग्रंथ ‘फिजिक्स एण्ड फिलासफी’ में यहां के चिंतन से स्वयं के प्रभावित होने का मार्मिक वर्णन किया है। वैज्ञानिक नील्सबोर और इरविन श्रोडिंजर के स्वरों में भी यहीं गंूज सुनाई देती है। श्रोडिंजर वेदांत में वर्णित प्रकृति के अनिष्चित स्वरुप की व्याख्या के आधार पर अपना आणविक अध्ययन करने मंे लगे थे। प्रयोगो के प्राप्त निष्कर्ष में उन्हें हतप्रभ हो कहना पडा ‘‘अरे ! सचमुच नाम रुप से अजूबा लगने वाला संसार कुछ तरंगों की हलचल भर है। ’’ उनके प्रयोगो के इस निष्कर्ष ने ‘वेक्स मेकनिक्स’ का रुप लिया।
विज्ञान के क्षेत्र में आइंसटीन और हाइजनवर्ग के प्रतिमानों को पार करने वाले जियोफेरी च्यू ने ‘बूट स्ट्रेैप’ का अनोखा सिद्धांत दिया है। इसमें हाइजेनवर्ग की क्वांटम मैकेनिक्स और आइंसटीन की सापेक्षता दोनो के तत्व समाये हैं। इसके अनुसार प्रकृति के मौलिक तत्व को विघटित नहीं किया जा सकता है। वस्तुओं का अस्तित्व उनके गुणों और अन्यों के साथ उनके गहरे ताल-मेल के कारण है। विज्ञानी च्यू ने जब भौतिक विद् काप्रा ने इस प्रयोग के संदर्भ में चर्चा की तो उन्होनें हंसते हुये कहा जब वह सन् 1964 में सपरिवार भारत आने की तैयारी कर रहे थे। इसी दौरान उनके लडके ने बौद्ध महायान का एक ग्रंथ उनको हाथ में दिया। इस गं्रथ में वे सारी बाते कही गई थी जिन पर वे विचार कर रहे थे। उन्हे स्वीकार करना पडा कि उनके प्रयोग भारत की सांस्कृतिक ज्ञान का सत्यापन भर है।
च्यू की भांति डेविड बोम के प्रयोगों का निष्कर्ष अखण्डित पूर्णता वेदांत का एक रुप है। इसे स्वीकार करते हुये उन्होने बताया कि सन् 1974 में उनकी मुलाकात भारतीय दार्षनिक जे. कृष्णमूर्ति से हुई। कृष्णमूर्ति के विचारों ने उन्हे पुर्वी तत्व चिंतन को वैज्ञानिक कसौटी पर कसने के लिये प्राप्त किया। इस प्रेरणा और प्रभाव ने हीं भौतिक विज्ञान को ‘अनब्रोकेन होलनेस’ का अभिनव सिद्वांत दिया। ऋषियों के चिंतन के प्रभाव विज्ञान की किसी शाखा विषेष तक सीमित नहीं है। अन्य शाखाएं और उनके अध्येता इसकी प्रेरणा और प्रभाव को ग्रहण कर विज्ञान के क्षेत्र में कुछ नया दे सके हैं। ‘‘स्टेप्सटएन एन इकाॅलाजी आॅब माइंड’’ की रचना करने वाले ग्रेगरी वैटसन अपने प्रयोगों में मन को एक नये रुप मे जान सके। उन्हीं के शब्दों में ‘‘माइन्ड विद्आउट नर्वस सिस्टम’’ की धारणा पूर्वी चिंतन से प्राप्त हुई। इसी प्रकार मनोविज्ञान के क्षेत्र में क्रांति लाने वाले आर.डी.लेंग सेक्रिटजोफ काप्रा ने लंदन में मुलाकात कर उन्हे अवगत कराया कि वह पूर्वी तत्व चिंतन और आधुनिक विज्ञान का समन्वय कर रहे हैं। लेंग ने हल्की मुस्कुराहट के साथ कहा-समन्वय की बात नहीं पूर्वी चिंतन पुर्णतया वैज्ञानिक है। वह स्वयं योग और ध्यान का अभ्यास करते हैं। इसी तत्व-चिंतन की प्रेरणा से वह हृूमिनिस्टिक साइकोलाॅजी की धारणा दे सकें हैं। आर.डी.लेंग की तरह स्टेनग्रोफ की रीयल आॅव हृूामन कांषसनेस में कार्ल गुस्ताव जंुग के प्रयोगों राबट्रो असमोली की साइकोसिन्थेसिस में भारत की सांस्कृतिक चिंतन के प्रभाव स्पष्ट दिखाई देते हैं। इन कतिपय उदाहरणों और छुट-पुट प्रयोगों की नहीं समस्त संस्कृति की है जो आज भी समीचीन और समसामयिक है।
जर्मन विद्वान तथा भारतीय संस्कृति के आराधक मैक्समूलर ने सन् 1958 की एक परिचर्चा में महारानी विक्टोरिया से कहा-‘‘यदि मुझसे पूछा जाये कि किस देष में मानव मष्तिष्क ने अपनी मानसिक एवं बौद्धिक शक्तियों को विकसित करके सही अर्थो में सदुपयोग किया है ,जीवन के गंभीरतम प्रष्नों पर गहराई से विचार किया और समाधान ढंूढ निकाले तो मैं भारत की ओर संकेत करुंगा ,जिसकी ओर प्लेटो और कांट जैसे दार्षनिको के दर्षन का अध्ययन करने वालों का ध्यान भी आकृष्ट होना चाहिये।’’
आठवीं शताब्दी में ऊलहजीज नामक मुस्लिम विद्वान भारत परिभ्रमण के लिये आया था। अपने साहित्य संग्रह में उसने लिखा है - ‘‘भारत रहस्यमय विद्याओं एवं भौतिक विधाओं का अविष्कारक है। ’’
सैमुअल जाॅनसन लिखते हैं - ‘‘हिन्दू लोग धार्मिक ,प्रसन्नचित्त ,न्यायप्रिय ,सत्यभाषी ,दयालू ,कृतज्ञ ,ईष्वरभक्त ,तथा भावनाषील होते हैं। ये विषेषताएं उन्हें सांस्कृतिक विरासत के रुप में मिली है। ’’
भारतवर्ष के प्रति विदेषी मनीषियों ,विद्वानों की श्रद्वा अकारण नहीं रही है। ज्ञान एवं विज्ञान की जो सुविकसित जानकारियां आज संसार में दिखाई पड़ रही है। उनमें कुछ योगदान भारत का रहा है। समय-समय पर यह देष विष्व वसुधा को अपनी भौतिक और अध्यात्मिक ज्ञान की धाराओं से अभिसिंचित करता रहा है। इस सत्य के प्रमाण आज भी इतिहासकार देते हैं। उल्लेख मिलता है कि दक्षिण-पूर्वी एषिया ने भारत से ही अपनी संस्कृति ली। ईसा के पांचवी शताब्दी पूर्व भारत के व्यापारी सुमात्रा ,मलाया और पास के अन्य द्वीपों में जाकर बस गये ,वहां के निवासियों से वैवाहिक संबंध भी स्थापित कर लिये। चैथी शताब्दी के पूर्व में अपनी विषिष्टता के कारण संस्कृत उन देशों की राजभाषा बन चुकी थी। राज्यों की सामूहिक शक्ति जावा के वोरोवदर स्तूप और कम्बोडिया के शैव मंदिर में सन्निहित थी। राजतंत्र इन धर्म संस्थानों के अधीन रहकर कार्य करता था। चीन ,जापान ,तिब्बत ,कोरिया की संस्कृतियों पर भारत की अमिट छाप देखी जा सकती है। बौद्ध स्तूपों ,मंदिरों के ध्वशाविशेष अनेकों स्थानों पर विखरे पड़े हैं।
भारतीय तत्व ज्ञान की स्पष्ट छाप पष्चिमी विचारकों पर भी दिखाई पड़ती है। गणितज्ञ पायथागोरस उपनिषद् की दार्षनिक विचार धारा से विषेष प्रभावित था। कितने ही पष्चिमी विद्वानों ने तो भारतीय साहित्य में समाहित विचारों के प्रेरणायें लेकर अनेकों कृतियाॅं रची ,जो अपने समय में अनुपम कहलायीं। ,गेटे ने सर विलियम जोन्स शकुन्तला नाटक के अनुवाद से अपने ड्रामा ‘फास्ट’ की भूमिका के लिये आधार प्राप्त किया। दार्षनिक फिकटे एवं हैंगल वेदांत के अद्वैतवाद के आधार पर एकेष्वरवाद (मानिज्म) पर रचनायें प्रस्तुत कर सकें। अमरीकी विचारक थोरो तथा एमरसन ने भारतीय दर्षन के प्रभाव का ही प्रचार-प्रसार अपनी शैली में किया।
गणित विद्या का मूल अविष्कारक भारत ही है। शून्य का अंक ,षतोत्तर गणना तथा संख्याओं के लिखने की आधुनिक प्रणाली मूलतः भारत की ही देन है। इससे पहले अंको को भिन्न-भिन्न चिन्हों द्वारा प्रदर्षित करने की रीति थी। फिनीसियन रीति से नौ को नौ लंबी लकीरों में लिखने की परंपरा थी। यजुर्वेद संहिता अध्याय 17 के मंत्र-2 में दस लाख तक की संख्या का उल्लेख एक पर 11 शून्य के रुप में किया गया है। जबकि यूनान की बडी से बडी संख्या का नाम मिरियड था तथा रोम की मिल्ली ,यह दोनों ही क्रमषः दस हजार तथा एक हजार की अधिकतम संख्या को दर्षाते थे। भारतीय विद्वान आर्यभट्ट ने वर्गमूल ,बीजगणित ,वर्ग समीकरण तथा घनमूल जैसी गणितीय विद्याओं का अविष्कार किया जो आज विष्व भर में प्रचलित है।


अरब निवासी अंको को हिंदसा कहते थे ,क्योंकि उन्होने अंक विद्या भारत से अपनायी। इनसे पाष्चात्य विद्वानों ने सीखकर ‘अरेबिक नोटेसन’ नाम रखा था। अनुमान है कि भारत की अंक प्रणाली का यूरोप में प्रचार पंद्रहवी शताब्दी में हुआ तथा सत्रहवीं सदी तक समस्त यूरोप में प्रयोग होने लगा । पाई की कल्पना तथा मान 3.1416 की खोज का श्रेय आर्यभट्ट को ह ै। गंवेषक मोहम्मद विनमूसा ने
925 ई. पाई का मान देते हुये यह लिखा है कि यह मान हिन्दू ज्योतिविदों का दिया हुआ है। सदियों पूर्व भारतीय ज्योतिविदों ने यह कल्पना की कि पृथ्वी सूर्य के चारों ओर घूमती है। सूर्यग्रहण तथा चंद्रग्रहण के समय का सही आंकलन करने वाली ज्योतिष विद्या इस देष (भारत) की देन है। जर्मनी के कितने ही विष्वविद्यालयों में आज भी वेदों की दुर्लभ प्रतियां सुरक्षित रखी हुई है ,तथा उनमें वर्णित कितनी ही गुहातम विद्याओं पर वहां के वैज्ञानिक अन्वेषणरत हैं।
‘‘जब दुनिया में सब सोये थे तब भी जगा था यह देष।’’ इसके विपरीत पष्चिमी जगत आस्ट्रेलिया ,इंग्लैड ,अफ्रीका ,अमेरिका इत्यादि मेें दो से ढाई हजार साल पहले कविलाई अवस्था थी। नगर योजना ,भवन निर्माण कला ,वस्त्र ,केषविन्यास ,भोजन निर्माण ,विज्ञान ,कला ,साहित्य ,दर्षन का अता-पता तक नहीं था। अर्थात् बर्बर अवस्था थी। जंगल में वर्षा में ठिठुरते हुये घूमना ,गुफाओं मे निवास ,चमडा ,पत्ते इत्यादि लपेट कर वन में घूमना ,कच्चा मांस खाना जैसी दीन स्थिति थी। यदि ज्यादा दूर न जाये सिर्फ 450 ई. पूर्व गैलीलियों ने अरस्तु की इस मान्यता को चुनौति दी कि भारी वनज वाली वस्तु हल्की वजन वाली वस्तु से अधिक वेग से गिरेगी। और जिस दिन गैलीलियों अपनी बात को प्रयोग द्वारा सिद्ध करने वाला था ,उस दिन पीसा की मीनार के पास सारा नगर उमड पडा। मीनार से एक और दस पौंण्ड वजन के दो पत्थर एक साथ छोडे गये और आष्चर्य चकित लोगों ने देखा कि दोनों पत्थर एक साथ जमीन पर गिरे। तब लोगों की प्रतिक्रिया थी ,गैलीलियो जरुर काला जादू जानता है ,अन्यथा अरस्तू कभी गलत हो सकते हैं ? इस घटना से पता चलता है कि 450 वर्ष यूरोप की मानसिकता कैसी थी। अंग्रेज स्वयं को बड़ा बुद्धिमान मानते हैं। परंतु वे जब हिंदुस्तान आये तो उन्होंने कभी रुई नहीं देखी थी। अतः कपास का पेड़ ,रुई ,धागा ,कपडा उनके लिये नई चीज थी। उन्हें तो सिर्फ इतना ज्ञात था कि ऊन भेड पर होती है ,और उससे वस्त्र बुनते हैं। अतः वे कहते थे कि यह हिंदूस्तानी बडा चालाक है। यह ऊन जो भेड पर होना चाहिये ,वह यह पेंड़ पर उगाता है। ये तथ्य यूरोपीय मानसिकता व प्रगतिषीलता के प्रति उनकी दृष्टिकोंण बताते हैं। जबकि पूरी दुनिया जानती है कि चालाक व बुद्धिमान (प्रज्ञावान) दोनो अलग-अलग वस्तुएं (गुण) हैं।
यह माना गया कि पिछले 150 वर्षो में विज्ञान और तकनीकी के क्षेत्र में यूरोप में अप्रतिम प्रगति हुई ,पर उससे पूर्व का समाज कैसा था ? उसमें अंधश्रद्धाएं हावी थी या तर्क ? बाइबिल या चर्च की मान्यताओं के विपरीत किसी ने कुछ कहा ,प्रयोग किया तो उनके साथ कैसा अमानवीय व्यवहार किया गया ,इसके उदाहरण इतिहास में भरे पडें है। गैलीलियो के जन्म से पूर्व लगभग 1500 वर्षो तक यूरोप पर अरस्तु के विचारों व धारणाओं का राज्य रहा। क्लौडियल टाॅलेमी ने ई. सन् 139 में अरस्तु के अनुसार पृथ्वी केन्द्रिक विष्व की मान्यता स्थापित की। जिसको चर्च का संरक्षण मिला और ये मान्यताएं शताब्दियों तक समूचे पष्चिमी जगत् में हावी रही। पोलैंड में जन्मे कोपरनिकस् ने सन् 1543 में टाॅलेमी की धारणा के विपरीत यह प्रतिपादित किया कि सूर्य केंद्र में है। और पृथ्वी उसके आस-पास चक्कर लगाती है। उसकी यह स्थापना पष्चिमी विज्ञान के इतिहास का प्रारंभ बिंदु बन गई। चर्च विरुद्ध इस बात का जिस पुस्तक में प्रतिपादन किया गया ,उसके छपने के पूर्व कोपरनिकस का देहांत हो गया और बाद में जब यह पुस्तक प्रकाषित हुई तब उस पर प्रतिबंध लगा दिया गया। गैलीलियों ने दूरबीन का अविष्कार करके कोपरनिकस के सिद्धांत को सही ठहराया तब उसे नजर कैद किया उसी अवस्था में उसने एक भौतिक शास्त्र पर गं्रथ लिखा ,जिसके छपने से पूर्व वह अंधा हो गया। और इसी अवस्था में सन् 1642 मे 78 वर्ष की अवस्था में दुनियां छोडकर चला गया। बाद में 1546 में डेनमार्क में जन्में खगोलवेत्ता टाइकोब्रूनों ने भी कोपरनिकस के सूर्य केंद्रिक सिद्धांत का समर्थन किया। ब्रूनों की खाजों द्वारा स्थापित सिद्धांतों ,स्थापनाओं से क्रोधित होकर पोप और पादरियों ने उसे 8 वर्ष कैद में रखा और बाद में माफी न मांगने पर सन् 1600 में उसे जिंदा जला दिया। इतना ही नहीं बू्रनों के सहयोगी जर्मनी में 1571 में जन्मे जोन केप्लर ने खगोलषास्त्र पर गहरा अध्ययन कर ग्रहों की स्थिति व गति के नियम खोजे ,कक्षाओं के नक्षे तैयार किये उस महान वैज्ञानिक को कैथोलिको ने धर्म विरुद्ध मानकर हमला किया और वह भागता रहा तथा गरीबी व बीमारी की अवस्था में लीस नगर जाते समय एक धर्मषाला में 1630 में उसकी दुःखद मृत्यु हो गई। ये तो मात्र कुछ उदाहरण थे ,कहानी काफी लंबी है। पष्चिमी मानसिकता की।
भारत में-हजारों वर्श पूर्व से विद्या के क्षेत्र में पूर्ण स्वातंत्र रहा।अपने विचारों के कारण यहां किसी को कैद नहीं किया गया न ही किसी को जिंदा जलाया गया। एक उदाहरण देखें। भारत वर्श में ज्ञान राषि ’वेद’ और उनके द्रश्टा ऋशियों के प्रति पवित्र भाव रहा है। उनके बारे में तथा बनाने वाले के बारे में भौतिक वादी चार्वाकों ने कहा-’त्रयोवेदस्य कर्तारः भण्डधूर्तनिषाचराः’ अर्थात्् तीनों वेदों को बनाने वाले पाखण्डी, धूर्त और निषाचर हैं। ऐसा विकृत वक्तव्य देने पर भी उनके साथ दुव्र्यवहार नहीं हुआ बल्कि उसे भी एक दर्षनाकार का स्थान दिया गया। हजारों वर्शों से भारत में अंधश्रद्धा या ग्रंथ प्रमाण का अंतिम स्थान नहीं रहा । इसके स्थान पर तर्क और प्रत्यक्ष अनुभव की मान्यता रही। अतः आदि षंकराचार्य ने अपने गीता भाश्य में कहा, यदि सैकडों श्रुतियां (ज्ञातव्य है कि उपनिशदों को श्रुतियां साक्षात् अनुभवजन्य होने से अतक्र्य है, तो भी वह प्रमाण स्वरूप नहीं मानी जा सकती है क्योंकि यह प्रत्यक्ष अनुभव के विपरीत है। (गीता अ.18 ष्लोक 66 षांकर भाश्य) ।
भारत की संसद के स्वर्ण जयंती अधिवेषन के समय डाॅ. मुरलीमनोहर जोषी द्वारा भाशण में कहा गया कि - ’’ अब हमें यह बताया जाता है कि हर वैज्ञानिक खोज के लिए पष्चिम की ओर देखो। अमेरिका में, जर्मनी, फ्रांस, जापान में क्या हो रहा है ? लेकिन आज से 200-250 वर्श पूर्व हालात बिलकुल उलटे थे और आज से 1000 - 1500 वर्श पूर्व तो हालात और भी उलटे थे। और कहा जाता है कि भारत में थ्योरीटिषियन ही था एवं प्रायोगिक विज्ञान तो पष्चिम से आया, यह एक निरा भ्रम है। भारत के प्रख्यात वैज्ञानिक आचार्य पी. सी. राय लिखते हैं कि - ’’हिन्दू रसायन षास्त्र संबंधी दो पुस्तकें हैं। एक ’रसेन्द्र चितामणि’ दूसरी ’रस प्रकाष सुधाकर ’। ये पुस्तक 13- 14 सदी में उत्पन्न हुए रसायन षास्त्री रामचंद्र तथा यषोधर द्वारा लिखी गईं। इसमें रामचन्द्र कहते हैं , ’’मैंने जो कुछ विद्वानों से सुना , षास्त्रों में पढा है पर जिसको मैने स्वयं प्रयोग द्वारा सिद्ध नहीं किया, उसे मैंने इस पुस्तक में नहीं लिखा है।’’ आगे रामचंद्र कहते हैं कि - वास्तविक अध्यापक वह है, जो पढ़ाये हुए विशय को प्रत्यक्ष प्रयोग द्वारा सिद्ध करें और छात्र वह है जो पुनः सिद्ध करे। जो ऐसा करते हैं, वे ही वास्तविक अध्यापक तथा छात्र हैं, बाकी सब तो नाटक के पात्र के समान हैं।’’ ऐसा ही अनुभव यषोधर ने अपने ग्रंथ ‘रस प्रकाष सुधाकर’ में व्यक्त किया। भारत के जितने संगीत के उपकरण हैं, वे सब प्रायोगिक विज्ञान के नमूने हैं। ये मात्र तात्विक या सैद्धान्तिक नहीं थे, अपितु निरीक्षण, परीक्षण और प्रयोगों की प्रक्रिया से उद्भूत हुए थे। भारत में अंधश्रद्धा प्रमाण से ऊपर तर्क को स्थान रहा। विचारों की पूर्ण स्वतंत्रता व प्रत्यक्ष प्रयोग की परम्परा उस काल से है, जब पष्चिम जगत् में इसकी कल्पना करना स्वप्न में भी संभव नहीं था। अतः अपने देष की वैज्ञानिक समृद्ध परम्पराओं से आज की पीढ़ी को परिचित कराना समय की मांग है जिससे देष परानुकरण, हीनताबोध की ग्रंथि से निकलकर, मुक्त होकर स्वावलंबन , स्वाभिमान व गौरवषाली अतीत की अनुभूति कर सकें।
भारत की गुरूता या श्रेश्ठता विष्व में इसी बात से सिद्ध हो जाती है कि - जिन प्रष्नों का उत्तर दुनिया के बड़े- बड़े वैज्ञानिक नही दे सकते, उन्हें भारत देष के चरवाहे भी जानते हैं। वैज्ञानिक जिस ’गाॅड पारटिकल’ की खोज कर रहे हैं उसे भारत का एक साधारण गवईया (ग्रामीण) भी जानता है।कि ’हरि व्यापक सर्वत्र समाना’ या ’ ईषावास्य मिदं सर्वम् ’ है। दूसरा प्रष्न कि विष्व की उत्पत्ति के पूर्व क्या था ? इसका उत्तर हमारे ऋगवेद के ’नासदीय सूत्र’ में अच्छी प्रकार से दिया हुआ है। तीसरा तथ्य संसार का सबसे प्राचीन देष भारत, प्राचीन संस्कृति भारतीय संस्कृति, प्राचीन ग्रंथ- ऋग्वेद, भाशा- संस्कृत, है इन तथ्यों को अब दुनियां मानने और जानने लगी है। यह सार्वभौम सत्य है। दुनिया में सिर्फ रामसेतु के पत्थर ही तैरते हैं । इस बात की पुश्टि मैक्समूलर के षब्दों में मिलती है। स्वामी अवधेषानंद गिरी जी महाराज अपनी श्रीराम कथा में कहते हैं कि -’’ मैक्समूलर जब मरने लगा और अंतिम समय षैया पर लेटा हुआ था तब उसके षिश्यों ने प्रष्न किया और कहा कि गुरूजी जब आप चले जाएंगे तो हमें ये बताकर जाइए कि फिर हमें हमारे प्रष्नों के उत्तर कहां से मिलेंगे ? तब मैक्समूलर कहता है - वल्र्ड का एटलस लाओ और फिर विष्व के मानचित्र पर छड़ी घुमाते हुए भारत में उत्तराखण्ड (हिमालय) पर रोकते हुए कहता है कि , मेरे बाद तुम्हें सारे प्रष्नों के उत्तर भारत से ही मिलेंगे ।’’ है ना आष्चर्य की बात। विष्व का प्रथम मानव ’मनु’ महाराज भारत में जन्म हुआ। विष्व का सबसे प्राचीन इतिहास , सभ्यता, ग्रंथ, पर्वत, विज्ञान, दर्षन सभी में भारत का नाम आता है आखिर क्यों ? ’विष्व गुरू’ या ’जगतगुरू’ भारत को ही कहा जाता था किसी अन्य देष को नहीं। दुनियां के अन्य देषों चीन, जर्मनी, इटली, अमेरिका, यूनान, पष्चिम से लोग पढ़ने भारत आते थे। इसीलिए कि भारत इन सबका केन्द्र अथवा मार्गदर्षक था। भारत ने किसी को युद्ध (हथियारों) से नहीं जीता वरन् ज्ञान , दर्षन, प्रेम, करूणा, त्याग इत्यादि मूल्यों से सारी दुनियां ही इसके सामने नतमस्तक हो गई। भारत वर्श की गुरूता के प्रमाणों की कहानी बडी लम्बी है, अकथनीय है, अद्भुत , अनंत है। सिर्फ आधुनिक जगत को इस बात को जानने की ही देरी है, बस फिर क्या पुनः वही अधिश्ठान, गरिमा, उपमा हमें प्राप्त होगी अथवा षुरूआत हो भी चुकी है। विष्व पटल पर जरा दृश्टि दौड़ाये ंतो पता चलता है कि सम्पूर्ण विष्व भारत की षरण में , एकात्म होता चला जा रहा है।
भारत वर्श के महामानवों ने ’’वसुद्यैव कुटुम्बकम’’ की भावना से प्रेरित होकर ’बहुजन हिताय’ दृश्टि से समय-समय पर द

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2017-07-31

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