बुन्देलखण्ड - हमीरपुर के (बबेड़ीनाथ मदिंर, बिवाॅर) नृत्यत गणेश

Authors

  • डा0 अभिनन्दन सिंह कार्य वाहक प्राचार्य श्री हीरानन्द महाविद्यालय, बिवार हमीरपुर

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Abstract

गुप्तकाल को इतिहास में स्वर्णयुग की संज्ञा प्राप्त है। इस स्वर्णयुग में भारतीय कला ने भी अपनी विकास यात्रा को पूर्णतः प्रदान करने का प्रयास किया। इस तरह भारतीय कला का सुचारू शिल्प-सौन्दर्य तथा उसका विविध वर्णी रूप विधान समस्त दिशाओं में फैल चुका था। ऐसा माना जाता है कि गुप्त काल के बाद कला का स्वारूप विकासोन्मुख न रहा। सातवीं शदी के मध्य के बाद बारहवीं शदी तक भरत में एक छत्र राज्य का आभाव था। उस समय अनेक विखरे छोटे-छोटे राज्य सास्ंकृतिक दृष्टि से पुष्ट थे। इन्होने अपनी क्षेत्रीय कला परमपराओं को जीवित रखने के साथ उसे विकासुन्मुख बनाते हुये सम्बृद्धि प्रदान की।1 वैसे तो गुप्तकाल में नृत्य गणेश कीइ कल्पना जन्म ले चुकी थी लेकिन उसे पूर्णता प्रतिहार शिल्पी ने प्रदान की।
उस समय कान्यकुब्ज के प्रतिहार शिल्पियों ने कला के विकासोन्मुख दृष्टिकोण को आगे बढ़ाते हुए मूर्तिकला की नवीन उद्भावनाओं को पूर्णतया प्रदान करने का सफल प्रयास किया। प्रतिहार शिल्पी ने मूर्तिकला में गणेश की नृत्य मुद्रा की मूर्तियों का निर्माण कर एक नवीन और अनूठा प्रयोग कर दिखाया, और इस तरह नृत्यत गणेश कि नवीन उद्भावना के लिए प्रतिहार शिल्पी अमर हो गया।
उस समय की पूर्व मध्य कालीन सामान्य मूर्तियों में हिन्दू धर्म के देवी देवताओं की मूर्तियाँ बनने लगीं थीं जिसमें सूर्य, कार्तिकेय, गणेश, बृम्हा, गंगा और यमुना, नवग्रह लक्ष्मी आदि है। इस समय बनने वाली बणेश प्रतिमा को दोहरे पद्यमासन पर पाचते हुए बनाया गया। यह मूर्तियाँ पहले के युग से भिन्न प्रायः स्टीला पद्धति में बनायीं गयीं। यह तक्षणों की निर्माण शैली में एक नवीन देन तथा मूर्तन करने की विशेष विधि है।2
गणेश प्रतिमाओं का निर्माण कुषाण काल से ही प्रारम्भ हो चुका था। गुप्त काल तक गणेश की अनेक मूर्तियों का निर्माण अनेक रूपों में हो चुका था यह मूर्तियां या तो बैठी हुईं मुद्रा में थीं या स्थानक मुद्रा में थीं। गुप्तकाल तक प्रायः गणेश की द्विभुजीय प्रतिमाओं का निर्माण होता रहा। कालान्तर में प्रतिहार शिल्पी द्वारा गणेश को नृत्य मुद्रा में पहली बार प्रदर्शित किया गया इन प्रतिमाओं में उन्हे षटभुज, अष्टभुज और दशभुज रूप में प्रदर्शित किया गया। नृत्य गणेश के रूप में देवता को अष्टभुजी रूप में प्रदर्शित किया जाता है। उनके एक हाथ को नृत्य मुद्रा में विभिन्न रूपों मे दिखाया जाता है और साथ में पाश, अंकुश, मोदक, परशु, स्वदन्त, वलय तथा अंगुलीय होता है।3 मथुरा की कला में इस समय की निर्मित एक गणपति प्रतिमा में कमल पुष्प के ऊपर नृत्य मुद्रा मे गणपति को प्रदर्शित किया गया है।4 इसी के साथ उनके आयुधों की संख्या में भी वृद्धि दिखाई गयी तथा नृत्यत गणेश के साथ वादक वृन्द भी उकेरे जाने लगे। गणेश प्रतिमाओं के फल को और उनके पाश्र्वों में अनेक देवी देवताओं का अंकन भी इसी युग की अभिनव देन कही जा सकती है।
मैने जिज्ञासा अनुसार यह भी खोजने का प्रयास किया कि आखिर गणेश ने प्रथम बार नृत्य कब किया होगा। ब्रम्हपुराण मे अविध्न तीर्थ कि महिमा मंे एक द्रष्टान्त है, जो गणेश के प्रथम बार नृत्य करने पर प्रकाश डालता है। एक बार गणेश माता का स्ंतन पान कर रहे थे, कार्तिकेय को देखकर वह और देर तक स्तन पान करते रहे ताकि कार्तिकेय दूध ना पी सकंे, इस पर भगवान शंकर ने कहा कि विघ्नराज तुम बहुत दूध पीते हो तो तुम लम्बोदर हो जाओ यह कहकर उन्होने उनका नाम लम्बोदर रख दिया इसके पश्चात देव समुदाय से घिरे हुए महेश्वर ने कहा बेटा अब तुम्हारा नृत्य होना चाहिये यह सुनकर उन्होने अपने पैर को नृत्य के लिए उठाया और पैर में पडे घुंघरू से अवाज कर शंकर को सन्तुष्ट किया इस तरह यह शिशु गणेश द्वारा प्रथम नृत्य था5।
आगे चलकर नृत्यत गणेश प्रतिमाओं का विकास हुआ और वह कन्नौज क्षेत्र का अतिक्रमण करते हुए मध्य प्रदेश, राजस्थान, गुजरात तथा उत्तर प्रदेश के विस्तृत भू-भाग पर फैल गयीं उस समय की फैली हुई पुरा सम्पदा काल गर्भित हो गई। वह काल गर्भित पुरा सम्पदा नवीन स्थानों से यदा-कदा प्राप्त होते हुए पुरातत्व के भण्डार को वैभव एवं सम्रद्धि प्रदान करती रहती है। इस शोध पत्र में आपको हमीरपुर जनपद के बिवाॅर गाँव के बबेड़ीधाम मंदिर एवं भुगैचा गाँव के भोगवा मंदिर में प्राप्त नृत्यत गणेशों का विस्तृत अघ्ययन प्रस्तुत है। यह दोनों प्रतिमांए अभीतक अप्रकाशित है और यह पुरातत्व के संज्ञान में नही हैं।
हमीरपुर जनपद बुन्देलखण्ड के प्रवेश द्वार के रूप में जाना जाता है। यह बेतवा एवं यमुना नदी के बीच में स्थित है। हमीरपुर जनपद की स्थापना राजा हमीरदेव ने की थी ऐसा माना जाता है कि ग्यारहवीं शताब्दी में हमीरदेव नामक कलचुरी राजपूत राजा ने इस नगर को बसाया था । राजा हमीरदेव अलवर(राजस्थान) से निस्कासित होने के कारण अपने लिए सुरक्षित आवास की तलाश मंे इधर-उधर भटकता हुआ यहाँ पहुँचा और यहीं पर अपना राज्य स्थापित कर लिया 6 । लेकिन कुछ विद्वान इस मत से सहमत नही है। उनका मानना है कि हमीरपुर की स्थापना चन्देल शासक हम्मीरदेव वर्मन ने (1289-1309 ई0) की थी ।
हमीरपुर की ऐतिहासिकता अति प्राचीन है प्राचीन समय में यह भू-भाग घने जंगलों में आच्छादित था। उत्तर भारत में कन्नौज राजा हर्षवर्धन के समय से शक्तिशाली केन्द्र था। हर्ष की मृत्यु के पश्चात कनौज को प्राप्त करने के लिए राष्ट्रकूट, पाल, प्रतिहारों में त्रिकोणात्मक संघर्ष हो गया। और अन्ततः प्रतिहारांे को इस संघर्ष में सफलता प्राप्त हुई। और उन्होने लम्बे समय तक लगभग सम्पूर्ण बुन्देलखण्ड में राज्य किया । हमीरपुर के प्रतिहारो के आधीन होने के कारण यहाँ प्रतिहार कला का आगमन हुआ होगा। बबेड़ीनाथ के नृत्यत गणेश प्रतिमा को प्रतिहार कला के कलाकारों ने गढ़ा होगा क्योकि कान्यकुब्ज क्षे़त्र मे प्रतिहार युगीन नृत्यत गणेश कि अनेक प्रतिमांए पायी जा चुकी हंै 7 जो प्रतिहार शिल्पी की अनूठी देन है। प्रतिमा लक्षण एवं अंकन के आधार पर इसे प्रतिहार कलाकारों द्वारा बनाया हुआ माना जा सकता है।

References

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चित्र सूची -

ण् बबेड़ीनाथ मन्दिर बिवाॅर हमीरपुर

ण् भुगवा मन्दिर भुगैचा बिवाॅर हमीरपुर

ण् शिव मन्दिर भुगैचा बिवाॅर हमीरपुर

ण् कालिन्जर बाँदा, इण्डियन जर्नल आॅफ आक्रियोलाॅजी, गैलरी

ण् चित्र गुप्त मन्दिर फतेगढ़

ण् संदलमिल सरायमीरा, कनौज

Published

2017-07-31

Issue

Section

Articles