‘‘श्रीमद्भगवद्गीता में मनोचिकित्सा की अवधारणाः एक विवेचन’’
Keywords:
श्रीमद्भगवद्गीता, मनोचिकित्साAbstract
श्रीमद्भगवद्गीता एक अद्भुत अलौकिक ग्रन्थ है। यह समस्त प्रकार की मानवीय समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करती है। चिकित्सा की दृटि से इसमें मानसिक उपचार का विषेश उल्लेख मिलता है। युद्ध स्थल पर जब अर्जुन जैसा शूरवीर सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर विपक्ष में खड़े अपने स्वजनों को देखकर शोक से भर जाता है, जिससे उसकी मानसिक दशा असामान्य हो जाती है। फलतः उसमें कायरतापूर्ण निराशाजनक भाव उत्पन्न हो जाते हैं और वह युद्ध क्षेत्र से पलायन की बात करने लगता है, तब योगेश्वर श्रीकृष्ण क्रमशः उसके मन में उठने वाले संशय एवं शोक पूर्ण भावों को दूरकर उसकी मनोदशा को ठीक करते हैं। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो वहाॅं अर्जुन ‘न्यूरोसिस’ नामक मनोरोग का षिकार हो जाता है, जिसके लक्षण वह स्वयं बताता है। यथा ‘हे केषव! मेरे अंग-प्रत्यंग षिथिल हुए जा रहे हैं और मुॅंह सूखा जा रहा है तथा मेरेषरीरमें कम्प एवं रोमांच हो रहा है। हाथ से गाण्डीव धनुष गिर रहा है, त्वचा भी बहुत जल रही है। तथा मेरा मन भ्रमित सा हो रहा है, इसलिए मैं खड़े रहने को भी समर्थ नहीं हूॅं।’ यह सुनने के पश्चात् भगवान श्रीकृष्ण धीरे-धीरे उसके मानसिक रोगों का निदान अपने उपदेशों के माध्यम से करते हैं।
सांख्ययोग व कर्म योग की दो धुरियों पर आधारित इस ग्रन्थ के माध्यम से ‘‘कर्मणान्यासः इति कर्म संन्यास’’ की चर्चा करते हुए जहाँ दैनन्दिन जीवन में व्यक्ति का आचरण किस प्रकार का होना चाहिए, इसकी विषद व्याख्या की गयी है, वहाँ ‘‘मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेषय, निवसिष्यसि मय्येव अतऊघ्र्वं न संषयः’’ व सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं षरणं व्रजं’’ आदि उक्तियों से समर्पण योग के माहात्म्य को स्पष्ट किया है। अर्जुन का असमंजस हम सबके मन का असमंजस है। अंतःकरण रुपी कृष्ण सत्प्रेरणा के रुप में सतत मन को ऊध्र्वगामी बनाने - स्वयं को योगी की स्थिति में लाने का संदेश देते रहते हैं जो सुन लेते हंै, वे इस महाभारत रुपी जीवन संग्राम को पार कर जाते हंै। दैवीय विभूतियों के वर्णन से लेकर ईष्वर के अवतरण का हेतु एवं दैनिक समस्याओं के समाधान हेतु व्याख्याएँ बड़े ही व्यावहारिक रुप में पाठक-परिजन इसमें पढ़ कर अपने जीवन की उलझनों को सुलझा सकते हंै।
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