‘‘पौराणिक साहित्य में अवतारवाद की प्रासंगिकता‘‘

Authors

  • रेणु कुमारी राजपूत शोधार्थी,संस्कृत विभाग मोहनलाल सुखाडि़या विश्वविद्यालय, उदयपुर ; राज. )

Keywords:

अवतारवाद, परम्परा, जीवन्तता।

Abstract

पौराणिक साहित्य एवं भारतीय समाज में अवतारवाद की महŸाी प्रतिष्ठा की गई है। अवतारवाद की परम्परा को बढ़ाने में पुराणों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। पुराणों में यह कहा गया है,कि अवतारवाद भारतीय संस्कृति के प्राण-तत्त्व के सदृश है। जैसे प्राण-तत्त्व के विद्यमान होने के कारण ही जीवन्तता की कल्पना की जा सकती है। उसी प्रकार इस तत्त्व के कारण भारतीय संस्कृति आज भी सजीव रूप से पल्लवित और पुष्पित हो रही है। देव मन्दिरों मे विद्यमान दशावतारों की मूर्तियाँ समाज में आज भी सांस्कृतिक और धार्मिक रूप से न केवल एकता का संचार कर रही है अपितु जीवन से निराश थके हुए और चिन्तित अभावग्रस्त लोगों के दःुखों को दूर कर उनके हृदय में जिजीविषा की आशा का संचार कर रही है।

References

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।

अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।। (गीता 4.7-8)

शतपथ ब्राह्मण 7.5 15

भागवत पुराण, 3/24/36

कुमार हर्ष: अग्निपुराण का ऐतिहासिक अध्ययन, पृष्ठ 4

दशावतार: एक नई दृष्टि लेख, कादम्बिनी, जनवरी 1973

उपर्युक्त पृष्ठ 43

उपर्युक्त पृष्ठ 44

विष्णु पुराण, 2/20/14

भागवत पुराण, 1.2.23

विष्णु पुराण, 1.4.17 एवं 4.8.67

जगृहं पौरुषं रूप भगवान् महदादिभिः।

सभूतं षोडशकलमादौ लोकसिसृक्षया।। (भागवत 1/3/1)

एतन्नानावताराणां निधनं बीजमव्ययम्।

यस्यांशांशेन सृज्यन्ते देवतिर्यड.नरादय।। (भागवत 2/3/4)

तैŸिारीय आरण्यक, प्रपाठक 10, अनुवाक - 1

भागवत पुराण, 3/25/26

ऋग्वेद, 6/47/18

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Published

2015-03-31

Issue

Section

Articles