पाषुपत-सम्प्रदाय के विकास का ऐतिहासिक सर्वेक्षण

Authors

  • Dr.Satendra Kumar Mishra Assistant Professor Amity University, Lucknow

Keywords:

सम्प्रदाय, शताब्दी, सिद्धान्त, परम्पराओं

Abstract

पाषुपत-सम्प्रदाय की उत्पत्ति, छठीं-पाॅचवीं शताब्दी ई. पू. में हुई होगी। परन्तु इससे यह अभिप्राय नहीं निकालना चाहिए कि पाषुपत सम्प्रदाय का उद्भव छठवीं-पाॅचवी शताब्दी ई. पू. कि कोई आकस्मिक घटना मात्र है, क्योंकि किसी भी धार्मिक संस्था अथवा विचारधारा का उद्भव विभिन्न प्रवृत्तियों और परम्पराओं और प्रवृत्तियों और परम्पराओं के पारस्परिक आदान-प्रदान एवं संघात के फलस्वरूप होता है, जो कि शताब्दियों से उस मत विषेष में होती रहती है। भारतीय धर्मसाधना और प्रवृत्तियों को निरन्तर सम्मिश्रण होता रहा है। अतः हम किसी भी धार्मिक संस्था अथवा सिद्धान्त को सर्वथा एकेान्मुख नही मान सकते है।
भारत की सन्दर्भ में यह धारणा और भी अधिक समीचीन लगती है क्योंकि यहीं की धार्मिक विचारधारा उदार एवं सविष्णु आधारों पर विकसित हुई थी और इस उदारवादी प्रवृत्ति के कारण सभी धर्मो एवं विचारधाराओं में विभिन्न परम्पराओं और तत्वों को सम्मिश्रण हुआ। इस दृष्टिकोण से पाषुपत सम्प्रदाय के उद्भव का इतिहास अत्यधिक रोचक है, क्योंकि इसमें भारत की आर्य और अनार्य, वैदिक और अवैदिक, सभ्य और असभ्य, विकसित और अविकसित सभी परम्पराओं के तत्वों का समावेष हुआ है। पाषुपत मत शैव धार्मिक व्यवस्था का प्रथम साम्प्रदायिक उपज है, अतः शैव धर्म की उत्पत्ति की पृष्ठभूमि में ही पाषुपत सम्प्रदाय के निर्माणत्मक तत्वों का विष्लेषण उचित प्रतीत होता है।

References

. महाभारत, षान्तिपर्व, 284/177-178

‘सर्वभूतकरो यस्मात् सर्वभूतपत्तिर्हरः। सर्वभूतान्तरात्मा च तेन त्वं न निमन्त्रितः।।

त्वमेव हीज्यसे यस्मादयज्ञैर्विविध्दक्षिणै। त्वमेव कर्ता सर्वस्वयं तेन त्वं न निमन्त्रितः।।

वायुपुराण, 66, 108, 110, 111, 112, 55/37

सौरपुराण 38/6-6, वराहपुराण 25/18/19

लिंगपुराण, भाग-1, अध्याय-1, ष्लोक 1

‘नमो रुद्राय हष्ये ब्रह्मणे परमात्मने। प्रधान पुरुषेषाय सर्गस्थित्यन्तकारिणे।।

नीलमत पुराण, अध्याय-4

‘एष सर्वेष्वरः षुक्र एषः कारणकारणम्।

एष चाचिन्त्यमहिमा एष ब्रह्म सनातनम्।।

‘स एष सर्वकर्ता च सर्वज्ञष्च महेष्वरः।

यदिच्छया जगदिति वर्वर्ति सचराचरम्।।

इण्डियन एण्टीक्यूरी, भाग 18, पृ. 210

‘‘त्रैलोक्य सौधषिल्पी यस्त्रिवेदीवाक्यसत्कविः।

नित्यप्रयत्नबोधेच्छासोऽष्टमूर्तिः श्रियै स्तुवः।।’’

यह द्रष्टव्य है कि रत्नटीका में भी यत्न, बोध और इच्छा को ईष्वर की शक्तियों

के रूप में चित्रित किया गया है।

‘श्षडदर्षन समुच्चय’, उद्धरित गणकारिका

तेषामीष्वरो देवः सर्वज्ञः सृष्टिसंहारादिकृत्

उद्धरित, दासगुप्ता, वही, पृ. 144-145

गणकारिका पर रत्नटीका (दलाल संस्करण), पृ. 11

‘निरतिषयदृविता ष्शक्तिः पतित्वं, तेनैष्वर्येण नित्यसंबन्धित्वं सत्वम्, अनागन्तुकैष्वर्यत्वमायत्वं, समस्त जन्म रहितत्वभजातत्वं, महासृष्टिसंहारकर्तृत्वं भवोद्भवत्वं, परमोत्कृशंृगुणधर्मनिमित्तनामाभिधेयत्वं वामत्वं दुःखान्तनिमित्त, धम्र्मोत्पादकानामभिधेयत्वं वा, दुःखकरानन्तषरीराधिष्टातृत्वं घोरतरत्वं।

Published

2015-06-30

Issue

Section

Articles