’’गोस्वामी तुलसीदास की समन्वयवादी चेतना’’

Authors

  • डाॅ प्रियम्वदा मिश्रा हिन्दी विभाग रा.दु.वि.वि., जबलपुर

Keywords:

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Abstract

तुलसी मूलतः भक्त थे। गंभीर चिंतक एवं प्रकाण्ड पंडित होते हुए भी उनका वास्तविक रूप भक्त का था। उनकी भक्ति दासभाव की थी जिसमें अनन्य अनुराग होते हुए भी स्वामी के प्रति विनय का भाव था। कवि के नाते गोस्वामी तुलसीदास जी मध्यकालीन हिंदी साहित्य के शिरोमणि हैं। युग की महान विभूतियाँ  काल प्रसूत होती है। उनका अवतार परिस्थितियों के अनुसार शक्ति और संदेश सहित होता है। गोस्वामी तुलसीदास जी का साहित्य के क्षेत्र में जिस समय आगमन हुआ, तत्कालीन राजनैतिक, सामाजिक परिस्थितियाँ अत्यंत विषम थी। देश की संस्कृति विलुप्त हो चुकी थी एवं धार्मिक सहिष्णुता नष्ट हो चुकी थी। एक विदेशी संस्कृति की जड़ें जमनी प्रारंभ हो रही थी। ऐसे समय में तुलसी ने सामाजिक परिस्थितियों की परख की तथा नष्ट हुए हिंदुत्व को पुनः एक बार उबारने की चेष्टा की। सामाजिक एवं धार्मिक कुरीतियों को नष्ट करते हुए, अपने काव्य के माध्यम से देश की सुप्त जनता में वीरत्व के भाव को जगाया। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने कहा है कि - ’’गोस्वामी तुलसी के प्रादुर्भाव को हिन्दी काव्य के क्षेत्र में एक चमत्कार ही समझना चाहिए।’’1 गोस्वामी तुलसीदास जी ने, हम क्या थे और क्या हो गये? इस यथार्थ से जन-जन को अवगत कराया तथा अपनी संस्कृति की रक्षार्थ अपने काव्य की रचना की।

References

आचार्य रामचंद्र शुक्ल - हिंदी साहित्य का इतिहास

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी - हिंदी साहित्य की भूमिका

गोस्वामी तुलसीदास - रामचरित मानस

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आचार्य रामचंद्र शुक्ल - हिंदी साहित्य का इतिहास

प्रो. राजकुमार शर्मा - तुलसीदासः विशिष्ट साहित्यकार

डाॅ. राजपति दीक्षित - तुलसीदास और उनका युग

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Published

2016-01-31