आधुनिक काव्यषास्त्र के आचार्य राधावल्लभ त्रिपाठी

Authors

  • शिखा झाारिया संस्कृत पालि एंव प्राकृत विभाग, रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय, जबलपुर

Abstract

प्राचीन काव्य शास्त्रियों ने भिन्न-भिन्न दृष्टियों से काव्य के अनेक भेद किए हैं उसी परम्परा में काव्यभेद की प्रक्रिया आज भी प्रचलित है। आज भी निरंतर नई-नई विधाओं के दृष्टि पथ मंे लक्षण बन रहे है। राधावल्लभ त्रिपाठी जी काव्यभेद की प्राचीनतम आधारभूत परंपरा का स्मरण करते हुए कहते हैं कि काव्य के मूलतः दो भेद है- पौरूषेय और अपौरुषेय।1
पौरुषैय - पौरूषेय शब्द से उन काव्यों का ग्रहण होता हैेेेेेेेे। जो लोकोत्तर वर्णन में निपुण कवि द्वारा नवनवोन्मेषशाली प्रतिभा के प्रभाव से निबद्ध होते हैं।
अपौरुषेय - अपौरुषेय का अभिप्राय ऐसे काव्य से है जिनका साक्षात्कार किया गया होे जो पुरूष के आयास से जन्य न हो।

References

प्ण् अभिनवकाव्यालंकारसूत्रम् पृ.25

प्प्ण् ऋकसंहिता 10/71/2 उद्धृत अभिनवकाव्यालंकारसूत्रम् पृ.26

प्प्प्ण् अभिनवकाव्यालंकार सूत्रम् पृ. 20 (1/4/1 से 1/4/4)

प्टण् साहित्यदर्पण 2.1

टण् प्रतापिनी पृ 30 उद्धृत अभिनवकाव्यालंकार सूत्र विमर्ष पृ. 62

टप्ण् संधानम् पृ. 53 उद्धृत अभिनवकाव्यालंकारसूत्र पृ. 24

टप्प्ण् संधानम् पृ. 53 उद्धृत अभिनवकाव्यालंकारसूत्र पृ. 24

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Published

2014-02-28